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________________ 24 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध सम्पन्नता-असम्पन्नता परक अर्थ ही किया है। अगर उच्च-नीच या किसी प्रकार का भेदभाव आहार ग्रहण करने के विषय में करना होता तो शास्त्रकार मूलपाठ में नापित, बढ़ई, तन्तुवाय (जुलाहे) आदि के घरों से आहार लेने का विधान न करते, तथा उग्न आदि जिन कुलों का उल्लेख किया है, उनमें से बहुत-से वशे तो आज लुप्त हो चुके हैं, क्षत्रियों में भी हूण, शक, यवन आदि वंश के लोग मिल चुके हैं / इसीलिए शास्त्रकार ने अन्त में यह कह दिया कि इस प्रकार के किसी भी लौकिक जाति या वंश के घर हों, उनसे साधु भिक्षा ग्रहण कर सकता है, बशर्ते कि वह घर निन्दित और घृणित न हो। जुगुप्सित और गहित घर-जुगुप्सा या धृणा उन घरों में होती है, जहाँ खुले आम मांसमछली आदि पकाये जाते हों, मांस के टुकड़े, हड्डियाँ, चमड़ा आदि पड़ा हो, पशुओं या मछलियों आदि का वध किया जाता हो, जिनके यहां बर्तनों में मांस पकता हो, अथवा जिनके बर्तन, घर, आंगन, कपड़े, शरीर आदि अस्वच्छ हो, स्वच्छता के कोई संस्कार जिन घरों में न हों, ऐमे घर, चाहे वे क्षत्रियों या मूलपाठ में बताए गए किसी जाति, वंश के ही क्यों न हों, वे जुगुप्सित और घृणित होने के कारण त्याज्य समझने चाहिए। और गहित-निन्द्य घर वे हैंजहाँ सरे आम व्यभिचार होता हो, वैश्यालय हो, मदिरालय हो, कसाईखाना हो, जिनके आचरण गंदे हों, जो हिंसादि पापकर्म में ही रत हो, ऐसे घर भी शास्त्र में परिगणित जातियों के ही क्यों न हों, भिक्षा के लिए त्याज्य हैं / जुगुप्सित और निन्दित लोगों के घरों में भिक्षा के लिए जाने से भिक्षु को स्वयं घृणा पैदा होगी, संसर्ग से बुद्धि मलिन होगी, आचार-विचार पर भी प्रभाव पड़ना सम्भव है, लोक-निन्दा भी होगी, आहार की शुद्धि भी न रहेगी और धर्मसंघ की बदनामी भी होगी। वृत्तिकार ने अपने युग की छाया में 'अदुगुछिएसु अगर हिएसु' इन दो पदों का अर्थ इस प्रकार किया है-जुगुप्सित यानी चर्मकार आदि के कुल तथा गहित यानी दास्य आदि के कुल / परन्तु शास्त्रकार की ये दोनों शर्ते शास्त्र में परिगणित प्रत्येक ज्ञाति-वंश के घर के साथ हैं।' उग्गकुलाणि आदि पदों के अर्थ-वृत्तिकार के अनुसार-कुल शब्द का अर्थ यहाँ घर समझना चाहिए, वंश या जाति नहीं। क्योंकि आहार घरों में मिलता है, जाति या वंश में 1. (क) प्रासाद हवेली आदि उच्चभवन द्रव्य से उच्च कुल है, जाति, विद्या, आदि से समृद्ध व्यक्तियों के भवन भारतः उच्चकुल है। तृण, कुटी झोंपड़ी आदि द्रव्यतः नीच कुल है, जाति, धन, विद्या आदि से हीन व्यक्तियों के घर भावतः नीच कूल है -दशकालिक सूत्र 5/14 पर हारिभद्रीय टीका 50 166 / (ख) नीच कुल को छोड़कर उच्च कुल में भिक्षा करने वाला भिक्षु जातिवाद को बढ़ावा देता है जातिवाओ य उवहिओ भवति / -~~दशवकालिक सू० अ० 5 उ०२ गा० 25 तथा उस पर जिनदासणि एवं हारिभद्रीय दीका पु० 168-166 / 2. आचासंग मूलपाठ के आधार पर पु० 106 / 3. टीका पत्र 327 के आधार पर / 4. दशवकालिक चूणि में भी यही अर्थ मिलता है 'कुलं सबंधि-समवातो, तवालयो वा सम्बन्धियों का समवाय या घर----कुल कहा जाता है.--अगस्यसिंह पूणि पु० 503 (दश० 5/14) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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