________________ 25 प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 337 नहीं। इस दृष्टि से यहाँ जितने भी नाम गिनाए हैं, वे वंशवाचक या ज्ञातिवाचक (प्रायः अपने पेशे से सम्बन्धित जाति संज्ञक) हैं। इस दृष्टि से उन का आरक्षिकवंश, भोग का राजा के पूज्य-पुरोहित, भोक्ता आदि वंश राजन्य का राजा के मित्र स्थानीय वंश, क्षत्रिय का राठौड़ आदि वंश, इक्ष्वाकु का ऋषभदेव स्वामी के वंशज, हरिवंश का हरि-(श्रीकृष्ण, अरिष्टनेमि आदि के) वंशज, एसिय का गोपाल ज्ञाति, वेसिय का वैश्यज्ञातीय वणिक, गण्डक का नापितज्ञातीय, कोट्ठाग का सुथार या बढ़ईजातीय, धोषकसालिय का तन्तुवाय (बुनकर) ज्ञातीय, गामरक्ख का ग्रामरक्षक ज्ञातीय अर्थ वृत्तिकार ने किया है। चूर्णिकार ने कुछ पदों के अर्थ इस प्रकार दिए हैं-एसिय= वणिक, वेसिय= रंगरेज (रंगोपजीवी), गंडाक= ग्राम का आदेशवाहक, कोट्टाग-रथकार / ' प्रासुक और एषणीय का विचार तो सभी घरों में आहार लेते समय करना ही चाहिए। इन्द्रमह आदि उत्सव में अशनादि एषणा ___ 337. से भिक्खू वा 2 जाव अणुपविट्ट समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं पा 4 समवाएसु घा पिंडणियरेस वा इंदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रद्दमहेस वा मुगुदमहेसु वा भूतमहेसु वा जखमहेस वा नागमहसु वा थूभम हेसु वा चेतियमहेसु वा स्वरमहस् वा गिरिमहेस वा वरिमहेसु वा अगउमहेस वा तलागमहेस वा दहमहेसु का दिमहेस वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अण्णतरेसु वा तहप्पगारेसु विरूवरू वेस महामहंस बट्टमाणेसु बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए एगातो उक्खातो परिएसिज्जमाणे दोहिं जाव संणिहिसंणिचयातो वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं असणं वा 4 अपरिसंतरगयं जाव णो पडिगाहेज्जा। __ अह पुण एवं जाणेज्जा- दिण्णं जं तेसि दायब्वं, अह तत्थ भजमाणे पेहाए गाहातिभारियं वा गाहानतिििण वा गाहातिपुत्त वा गाहावतिधूयं वा सुण्हं वा धाति वा दासं वा दासि वा कम्मकरं वा कम्मकरि वा से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो त्ति वा भगिणि ति वा दाहिसि मे एत्तो अग्णयरं मोयणजायं ? से सेवं वातस्स 1 असण वा 4 आहट दलएज्जा, तहप्पगारं असणं वा 4 सयं वाणं जाएज्जा, परो वा से देज्जा, फासुयं नाव पडिगाहेज्जा / 1. (क) टीका पत्र 327 / (ख) आचा० चूणि मूलपाठ टि० पृ० 106 / 2. 'वणीमए' के बदले 'वणीमएस' पाठ प्रायः प्रतियों में मिलता है, परन्तु पूर्वापर अनुसन्धान करने पर 'वणीमए' पाठ ही युक्तिसगत प्रतीत होता है। 3. आलोएज्जा का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-आलोएज्जा- आल विज्जा, अर्थात-बोले / वृत्तिकार इसके दो अर्थ करते है-आलोकयेत् पश्येत्, प्रभु प्रभुसन्दिष्ट या ब्रूयात् / मालोकयेत् = देखे, तथा गृहस्वामी को, या गृहपति के सेवक से कहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org