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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ___337. वह भिक्षु या भिक्षुणी भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट होते समय यह जाने कि यहाँ मेला, पितृपिण्ड के निमित्त भोज, तथा इन्द्र-महोत्सव, स्कन्ध-महोत्सव, रुद्र महोत्सव, मुकुन्द-महोत्सव, भूत-महोत्सव, यक्ष-महोत्सव, नाग-महोत्सव तथा स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, कूप, तालाब, ह्रद (झील), नदी, सरोवर, सागर या आकर (खान) सम्बन्धी महोत्सव एवं अन्य इसी प्रकार के विभिन्न प्रकार के महोत्सव हो रहे हैं, (उनके उपलक्ष्य में निष्पन्न) अशनादि चतुर्विध आहार बहुत-से श्रमण-ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचकों को एक बर्तन में से, दो बर्तनों, तोन बर्तनों या चार बर्तनों में से निकाल कर) परोसा (भोजन कराया) जा रहा है तथा घी, दूध, दही, तैल, गुड़ आदि का संचय भी संकड़े मुंह वाली कुप्पी में से, तथा बांस की टोकरी या पिटारी से परोसा जा रहा है, यह देखकर तथा इस प्रकार का आहार पुरुषान्तरकृत, घर से बाहर निकाला हुआ, दाता द्वारा अधिकृत, परिभुक्त या आसेवित नहीं है तो ऐसे चतुर्विध आहार को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। ___ यदि वह यह जाने कि जिनको (जो आहार) देना था, दिया जा चुका है, अब वहाँ गृहस्थ भोजन कर रहे हैं, ऐसा देखकर (आहार के लिए वहां जाए), उस गृहपति की पत्नी, बहन, पुत्र, पुत्रो या पुत्रवधू, धायमाता, दास या दासी अथवा नौकर या नौकरानी को पहले से ही (भोजन करती हुई) देखे, (तब अवसर देखकर) पूछे-"आयुष्मती भगिनी ! क्या मुझे इस भोजन में से कुछ दोगी? ऐसा कहने पर वह स्वयं अशनादि आहार लाकर साधु को दे अथवा अशनादि चतुर्विध आहार को स्वयं याचना करे या वह गृहस्थ स्वयं दे तो उस आहार को प्रासुक एषणीय जानकर मिलने पर ग्रहण करे। विवेचन--महोत्सवों में निष्पन्न आहार कब ग्राहा, कच अग्राह्य ?–इस सूत्र में सूत्र 335 की तरह की चर्चा की गई है / अन्तर इतना-सा है कि वहाँ तिथि, पर्व-विशेष में निष्पन्न आहार का निरूपण है, जबकि यहाँ विविध महोत्सवों में निष्पन्न आहार का। यहाँ महोत्सवों में निष्पन्न आहार जिनको देना था, दे चुकने के बाद जब गृहस्थ भोजन कर रहे हों, तब आहार को दाता दे तो ग्राह्य बताया है।' 'समवाएसु' आदि शब्दों के अर्थ-वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैं-समवाय का अर्थ मेला है, जनसमूह का एकत्रित मिलन जहाँ हो। पिण्डनिकर का अर्थ है-पितृपिण्ड=मृतकभोज / स्कन्ध कार्तिकेय, रुद्र प्रसिद्ध हैं, मुकुन्द बलदेव, इन सबकी लोक में महिमा-पूजा विशिष्ट समय पर की जाती है। संखडि-गमन निषेध 338. से भिक्खू वा 2 परं अद्ध जोयणमेराए संल्ड संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। 1. टीका पत्र 328 के आधार पर। 2. टीका पत्र 328 के आधार पर। 3. किसी-किसी प्रति में 'संडिजच्चा' तथा 'संखड संखडिपडियाए' पाठ है, हमारी आदर्श प्रति में 'णच्चा' पद नहीं है / अर्थात् सखडि को जान कर संखडी की अपेक्षा से जाने की इच्छा न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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