________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 343 की परिवाजिकाएं वर्षा और ग्रीष्म ऋतु आदि में होने वाले बृहत्भोजों में सम्मिलित होकर मद्य पीते थे; माहेश्वर, मालव और उज्जयिनी आदि प्रदेशों में गृहस्थपत्नियां भी एकचित्त और एकवाक्य होकर सब मिलकर एक साथ मद्य पीती थीं और प्रकट में पीती थीं। इससे स्पष्ट है कि वहाँ मद्य का दौर चलता था, उसमें साधु भी लपेट में आ जाय तो क्या आश्चर्य ! फिर जो अनर्थ होता है, उसे कहने की आवश्यकता नहीं / यही कहा गया है / "एगझं सदि सो पाउं........" एकध्य का अर्थ है-एकचित्त सोंड का अर्थ है-मद्य -- विकट / पाउं का अर्थ है-पीने के लिए 'वतिमिस्स' का अर्थ है-परस्पर मिल जाएंगे।' ___'उवस्सय' शब्द यहां साधुओं के ठहरने के नियत मकान के अर्थ में नहीं है, किन्तु उस सामान्य स्थान को भी उपाश्रय कह दिया जाता था, जहाँ साधु ठहर जाता था।' 'सासिज्जेज्जा' शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने किया है--स्वीकार कर ले। 'संपहावइ' का अर्थ वैसे तो 'दौड़ना' है किन्तु वृत्तिकार प्रसंगवश इस वाक्य की व्याख्या करते हैं—“किसी कारणवश साधु संखडि का नाम सुनते ही स्थल के अभिमुख इतने अत्यन्त उत्सुक मन से शीघ्र-शीघ्र चलता है कि मेरे लिए वहाँ अद्भुत खाद्य पदार्थ होंगे, क्योंकि वहाँ निश्चय ही संखडि है। 'माइट्ठाणं संफासे' का अर्थ 'मातृस्थान का स्पर्श करना है' / मातृ स्थान का अर्थ है-- कपट या कपटयुक्त वचन। इससे सम्बन्धित तथा माया का कारण बताने वाले मूलपाठ का आशय यह है कि वह साधु संखडि वाले ग्राम में आया तो है--संखडि-निष्पन्न आहार लेने, किन्तु सीधा संखडिस्थल पर न जाकर उस गाँव में अन्यान्य घरों से थोड़ी-सी भिक्षा ग्रहण करके पात्र खाली करने के लिए उसी गाँव में कहीं बैठकर वह आहार कर लेता है, ताकि खाली पात्र देखकर संखडि वाला गृहपति भी आहार के लिए विनती करेगा तो इन पात्रों में भर लंगा।" इसी भावना को लक्ष्य में रखकर यहां कहा गया है कि ऐसा साधु माया का सेवन करता है। अतः संखडिवाले ग्राम में अन्यान्य घरों से प्राप्त आहार को वहीं करना उचित नहीं है। इहलोकिक-पारलौकिक हानियों के खतरों के कारण साध संखडि वाले ग्राम में न जाए, यही उचित है। ___ 'सामुदाणियं एसियं वेसियं पिउवात....' इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि कदाचित् विहार करते हुए संखडि वाला ग्राम बीच में पड़ता हो और वहाँ ठहरे बिना कोई चारा न हो तो संखडि वाले घर को छोड़कर अन्य घरों से सामुदानिक भिक्षा से आहार ग्रहण करके सेवन करे / सामुदानिक आदि पदों का अर्थ इस प्रकार है-सामुदाणियं-भक्ष्य, एसियं =आधा 1. आचारांग चूणि, आचा० मू० पा० टि० पृ० 112 / 2. टीका पत्र 330 // 3. टोका पत्र 630 / 4. मातिटठाणं विवज्ज जा---मायाप्रधानंवचोविवर्जयेत्---सूत्रकृत् 1/4/25 शीलांकवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org