________________ 132 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा' 4 जं तहप्पगारे उबस्सए ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 428. आयाणमेतं भिक्खुस्स गाहावतीहिं सद्धि संवसमाणस्स / इह खलु गाहावतिस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाते उवक्खडिते सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा 4 उवक्खडेज्ज वा उवकरेज्ज वा, तं च भिक्खू अभिकखेज्जा भोत्तए वा पातए वा वियट्टित्तए वा। अह भिक्खूणं पुचोवदिट्ठा 4 जंणो तहप्पगारे उवस्सए ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 426. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतिणा सद्धि संबसमाणस्स / इह खलु गाहावतिस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूबरूवाई दारुयाई भिण्णपुवाई भवंति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए विरूवरूवाइं दारुयाइं भिदेज्ज वा किणेज्ज वा पामिच्चेज्ज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कटु अगणिकायं उज्जालेज्ज वा पज्जालेज्ज वा, तत्थ भिक्खू अभिकखेज्जा आतावेत्तए वा पयावेत्तए वा वियट्टित्तए वा। अह भिक्खूणं पुन्वोवदिट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 430. से भिक्खू वा 2 उच्चारपासवणेणं उब्बाहिज्जमाणे रातो वा वियाले वा गाहावतिकुलस्स दुवारबाहं अवंगुणेज्जा, तेणो य तस्संधिचारी अणुपविसेज्जा, तस्स भिक्खुस्स को कप्पति एवं वदित्तए-अयं तेणे पविसति वा णो वा पविसति, उवल्लियति वा णो वा उव हैं। यदि ऐसा नहीं करता है तो बदनामी होती है। अथवा साधुओं के लिहाज से भोजनादि जो पूर्व कर्म हैं, उन्हें गृहस्थ बाद में करता है। सूत्रार्थ पौरसी के बाद सूर्यास्त होने पर / अन्तिम पौरसी में भोजन इत्यादि करने पर साधुओं के स्वाध्याय में विघ्न पड़ता है, यह सोचकर गृहस्थ भोजनादि कार्य पहले कर लेता है। भोजन बनाने का कार्य भी साधुओं के अनुरोध से इस प्रकार के विघ्न के कारण स्थगित कर देता हैं। साधु अपनी चर्या आगे-पीछे करता है या स्थगित कर देता है। गृहस्थ भिक्षु के अनुरोध से कई नित्यकार्य करते हैं, नहीं भी करते / / 1. 'पुब्बोवदिटठा' के बाद '4' का अंक यहाँ 'एस उवएसो' तक के पाठ का सूचक है। 2. 'ठाणं वा' के बाद '3' का अंक सेज्ज वा निसोहियं वा' पाठ का सूचक है। चर्णिकार 'अतेणं तेणगमिति संकति' इस वाक्य की व्याख्या यों करते हैं-"अयं उवचरए, उवचरओ णाम चारिओ, ताणि वा साहं चैव भणंति-अयं तेणे, अयं उवचरए, अयं एत्थ अकासी चोरचारियं, आसी वा एत्थ / एत्थ सम्भावे कहिए चोरातो भयं, तुहिक्के पच्चंगिरा। अतेणं तेणगमिति संकति / सागारिए भवे दोसा।' __ --साधु अगर चोरों के विषय में सच्ची बात कहता है, किन्तु चोरों का पता न लगने पर वे गृहस्थ उसी (साधु) को यों कहते हैं कि---यह चोर है, यह उपचरक गुप्तचर है। इसी ने यहां चोरी (चारी-भेद बताने का कार्य) की है यही यहाँ था। ऐसी स्थिति में अगर वह साधु सच्ची बात कह देता है तो चोरों से भय है, यदि मौन रहता है तो उसके प्रति अप्रतीति होती है, जो साधु चोर नहीं है, उसके प्रति चोर की शंका होती है। अत: गृहस्थ-संसक्त स्थान में यह दोष सम्भव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org