________________ 370 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध निधानों का सिद्धार्थ राजा के भवन में संग्रह, हिरण्यादि में वृद्धि के कारण माता-पिता द्वारा वर्द्धमान नाम रखने का विचार, सिद्धार्थ द्वारा हर्षवश पारितोषिक, प्रीतिभोज आदि विस्तृत वर्णन कल्पसूत्र में देखना चाहिए / यहाँ संक्षेप में मुख्य बातें कह दी गई हैं।' भगवान का नामकरण 740. जतो णं पभिति भगवं महावीरे तिसिलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भं आहूते ततो गं पभिति तं कुलं विपुलेणं हिरण्णणं' सुवण्णेणं धणेणं धण्णणं माणिक्केणं मोतिएणं संखसिल-प्पवालेणं अतीव अतीव परिवड्ढति / ततो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एयम?जाणित्ता णिवत्तवसाहसि वोक्कतसि सुचिभूतसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेति / विपुलं असण-पाणखाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता मित्त-णाति-सयण-संबंधिवग्गं उवनिमंतेत्ता बहवे समण-माहणकिवण-वणीमग-भिन्छुडगः-पंडरगाईण विच्छड्ढेति', विग्गोवेति, विस्साणेति, दायारेसु णं दाणं पज्जाभाएंति / विच्छढित्ता, विग्गोवित्ता, विस्साणित्ता वायारेसु णं दाणं पज्जाभाइत्ता मित्त-णाइ-सयण-संबंधिवग्गं भुजावेति / मित्त-जाति-सयण-संबंधिवग्गं भुंजावित्ता, मित्तजाति-सयण-संबंधिवग्गेण इमेयाख्यं णामधेज्ज कारवेंति-जतो णं पभिति' इमे कुमार तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भे आहूते ततो गं पभिति इमं कुलं विपुलेणं हिरण्णणं सुवण्णणं 1. कल्पसू त्र मूलपाठ पृ० 80 से 138 तक / 2. यहाँ किसी-किसी प्रति में 'हिरण्णणं' पाठ नहीं है। 3. 'धणेणं' के बदले पाठान्तर है ---'धण्णेणं' / 'धान्य से / ' 4. 'जाणित्ता' के बदले 'जाणिया' पाठान्तर है। 5. 'णिम्वत्तदसाहसि' के बदले कल्पसूत्र में पाठ है-'एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते निव्वतिए अमूतिजात ककम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे...' ग्यारहवां दिन व्यतीत होने पर असति (अशुचि) जातककर्म से निवृत्त होने पर बारहवां दिन आने पर। 'भिच्छंडग---पंडरगाईण' से मिलता-जुलता ज्ञाताधर्मकथांग के पन्द्रहवें अध्ययन में समागत पाठचरए वा मिच्छडे वा पंडरंगे वा-है। उसकी टीका में अभयदेवसरि ने अर्थ किया है-'चरको धाटिभिक्षाचरः / "भिक्षाण्डो भिक्षाभोजी सुगतशासनस्य इत्यन्ये, पाण्डुरागः शैव.।' अर्थात्चरक संन्यासियों का झुडविशेष, यूथबंध घूमकर भिक्षाटन करने वाले भिक्षुओं की एक जाति / भिक्षाण्ड = भिक्षाभोजी, कई आचार्य कहते हैं -.-"बौद्ध शासन के भिक्षु हैं। पाण्डराग = शैवभिक्षु / ' 7. 'विच्छड्ढेति' के बदले पाठान्तर हैं-'विच्छति, 'विच्छडेइ' / 8. 'दायारेसु णं पज्जाभाएंति' का समानार्थक पाठ कल्पसूत्र में मिलता है—'वाणं दायारेहि परिभाएत्ता' 8. विस्साणित्ता' के बदले पाठान्तर है.---"विस्साणिया' / 10. 'णं दाणं पजामाइत्ता' के बदले पाठान्तर हैं—'णं पज्जाभाइत्ता, णं दाणं पज्जाभाइता' णं दायं पज्जाभाइत्ता'। 11. 'कारवेंति के बदले पाठान्तर हैं-कारवेति, करेंति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org