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________________ 148 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध संसारस्वरूप-परिज्ञान 149. संसयं परिजाणतो संसारे परिणाते भवति, संसयं अपरिजाणतो संसारे अपरिग्णाते भवति / जे' छेये से सागारियं ग सेवे / कट्ट एवं अविजाणतो बितिया मंदस्स बालिया। लद्धा हुरत्था पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्जा अणासेवणयाए ति बेमि / पासह एगे रूवेसु गिद्ध परिणिज्जमाणे / एत्थ कासे पुणो पुणो। 149. जिसे संशय (मोक्ष और संसार के विषय में संदेह) का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जान पाता। जो कुशल (मोह के परिणाम या संसार के कारण को जानने में निपुण) है, वह मैथुन सेवन नहीं करता। जो ऐसा (गुप्तरूप से मैथुन का सेवन) करके (गुरु प्रादि के पूछने पर) उसे छिपाता है-अनजान बनता है, यह उस मूर्ख (काममूढ़) की दूसरी मूर्खता (अज्ञानता) है / उपलब्ध काम-भोगों का (उनके उपभोग के कटु-परिणामों का) पर्यालोचन करके, सर्व प्रकार से जानकर उन्हें स्वयं सेवन न करे और दूसरों को भी काम-भोगों के कटुफल का ज्ञान कराकर उनके अनासेवन (सेवन न करने) की आज्ञा-उपदेश दे, ऐसा मैं कहता हूँ। हे साधको ! विविध काम-भोगों (इन्द्रिय-विषयों) में गद्ध-आसक्त जीवों को देखो, जो नरक-तिर्यच आदि यातना-स्थानों में पच रहे हैं--उन्हीं विषयों से खिचे जा रहे हैं। (वे इन्द्रिय-विषयों के वशीभूत प्राणी) इस संसार-प्रवाह में (कर्मों के फलस्वरूप) उन्हीं स्थानों का बारम्बार स्पर्श करते हैं, (उन्हीं स्थानों में पुनः-पुन: जन्मतेमरते हैं)। 1. (क) 'जे छेये से सागारियं...' के बदले ‘से सागारिय ग सेवए' पाठ है। अर्थ होता है-'वह (साधक) अब्रह्मचर्य (मैथुन)-सेवन न करे।' (ख) नागार्जुनीय पाठान्तर इस प्रकार है-जे खलु विसए सेवति, सेवित्ता नालोएति, परेण वा पुट्ठो णिण्हवति, अहया तं परं सएण वा दोसेण पाविठ्ठसरएण वा (दोसेण) उलिपिज्जा।"---- "जो विषय (मैथुन) सेवन करता है, सेवन करके उसकी आलोचना नहीं करता, दूसरे द्वारा पूछे जाने पर छिपाता है, अथवा उस दूसरे व्यक्ति को अपने दोष से या इससे भी बढ़कर पापिष्ठ दोष से लिप्त करता है।" 2. 'अविजाणतो' के बदले चूणि में 'अवयाणतो' पाठ है। 'अव परिवर्जने अवयाणति जं भणितं व्हवति'; 'अव' परिवर्जन अर्थ में है, अर्थात् मैं नहीं जानता, इस प्रकार पूछने पर इन्कार कर देता है. या पूछने पर अवज्ञा कर देता है। वृत्तिकार ने अर्थ किया है- अकार्यमपलपतोऽविज्ञापयतो वा। उस अकार्य का अपलाप (गोपन) करता हुमाया न बताता हुआ"। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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