________________ 208 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध वचन से व्यक्त करे। किन्तु निर्भय, निर्द्वन्द्व और अनासक्त होकर आत्म-भाव में लीन होकर शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग कर दे और राग-द्वेष रहित होकर समाधिभाव में विचरण करे। 516. यही उस साधु या साध्वी के भिक्षु जीवन की समग्रता-सर्वांगपूर्णता है, कि वह सभी अर्थों में सम्यक् प्रवृत्तियुक्त, ज्ञानादिसहित होकर संयम पालन में सदा प्रयत्नशील रहे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-विहारचर्या में साधु की निर्भयता और अनासक्ति की कसौटी---पिछले 6 सूत्रों में साधु की साधुता की अग्निपरीक्षा का निर्देश किया गया है / वास्तव में प्राचीनकाल में यातायात के साधन सुलभ न होने से अनुयायी लोगों को साधु के विहार की कुछ भी जानकारी नहीं मिल पाती थी। उस समय के विहार बड़े कष्टप्रद होते थे, रास्ते में हिंस्र पशुओं का और चोर-डाकुओं का बड़ा डर रहता था, बड़ी भयानक अटवियाँ होती थी, लंबी-लंबो / रास्ते में कहीं भी पडाव करना खतरे से खाली नहीं था। ऐसी विकट परिस्थिति में शास्त्रकार ने साधु वर्ग को उनकी साधुता के अनुरूप निर्भयता, निईन्द्वता, अनासक्ति और शरीर तथा उपकरणों के व्युत्सर्ग का आदेश दिया है / इन अवसरों पर साधु की निर्भयता और अनासक्ति की पूरी कसौटी हो जाती थी। न कोई सेना उसे रक्षा के लिए अपेक्षित थी, न वह शस्त्रास्त्र, साथी सुरक्षा के लिए कहीं आश्रय ढूँढ़ता था। चोर उसके वस्त्रादि छीन लेते या उसे मारते-पीटते तो भी न तो चोरों के प्रति प्रतिशोध की भावना रखता था, न उनसे दीनतापूर्वक वापस देने की याचना करता था, और न कहीं उसकी फरियाद करता था / शान्ति से, समाधिपूर्वक उस उपसर्ग को सह लेता था।' 'गामसंसारियं' आदि पदों का अर्थ-गामसंसारियं-ग्राम में जाकर लोगों में उस बात का प्रचार करना, रायसंसारियं-राजा आदि से जाकर उसकी फरियाद करना। र्या-अध्ययन समाप्त / / 1. बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य तथा निशीथ चूणिकार आदि के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि उस युग में श्रमणों को इस प्रकार के उपद्रवों का काफी सामना करना पड़ता था। कभी बोटिक चोर (म्लेच्छ) किसी आचार्य या गच्छ का वध कर डालते, संयतियों का अपहरण कर ले जाते तथा उनकी सामग्री नष्ट कर डालते-(निशीथ चूणि पीठिका 286) इस प्रकार के प्रसंग उपस्थित होने पर अपने आचार्य की रक्षा के लिए कोइ वयोवृद्ध साधु गण का नेता बन जाता और गण का आचार्य सामान्य भिक्षु का वेष धारण कर लेता-(बृहत्कल्प भाव्य 1,3005-6 तथा निशीथभाष्य पीठिका 321) कभी ऐसा भी होता कि आक्रान्तिक चोर चुराये हुए वस्त्र को दिन में ही साधुओं को वापिस कर जाते किंतु अनाक्रान्तिक चोर रात्रि के समय उपाश्रय के बाहर प्रस्रवणभूमि में डालकर भाग जाते / -(वह भाष्य 1.3011) यदि कभी कोई चोर सेनापति उपधि के लोभ के कारण आचार्य की हत्या करने के लिए उद्यत होता तो धनुर्वेद का अभ्यासी कोई साधु अपने भुजावल से, अथवा धर्मोपदेश देकर या मन्त्र, विद्या, चूण और निमित्त आदि का प्रयोग कर उसे शान्त करता ! -(वहीं 1.3014) / -अंन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृष्ठ 357 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 384 के आधार पर (ख) आचारांग चूणि, मू० पा० टिप्पणी पृ० 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org