________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 432-41 143 (1) कालातिकान्ता-वह शय्या है, जहां साधु ऋतुबद्ध (मासकल्प-शेष) काल और वर्षा काल (चौमासे) में रहे हों, ये दोनों काल पूर्ण होने पर भी जहां ठहरा जाए। (2) उपस्थाना-ऋतुबद्धवास और वर्षावास का जो काल नियत है, उससे दुगुना काल अन्यत्र बिताए बिना ही अगर पुनः उसी उपाश्रय में आकर साधु ठहरते हैं तो वह उपस्थानाशय्या कहलाती है। (3) अभिक्रान्ता-जो शय्या (धर्मशाला) सार्वजनिक और सार्वकालिक (यावन्तिकी) है, उसमें पहले से चरक, पाषण्ड, गृहस्थ आदि ठहरे हुए हैं. बाद में निर्ग्रन्थ साधु भी आकर ठहर जाते हैं तो वह अभिक्रान्ता-शय्या कहलाती है। (4) अनभिक्रान्ता-वैसी ही सार्वजनिक-सार्वकालिक (यावन्तिकी) शय्या (धर्मशाला) में चरकादि अभी तक ठहरे नहीं हैं, उसमें यदि निग्रंन्थ साधु ठहर जाते हैं, तो वह अनभिक्रान्ता कहलाती है। (5) वा-वसति (शय्या) वह कहलाती है, जो अपने लिए गृहस्थ ने बनवाई थी, लेकिन बाद में उसे साधुओं को रहने के लिए दे दी, और स्वयं ने दूसरी वसति अपने लिए बनवा ली। वह वजित होने के कारण साधु के लिए वा-त्याज्य है। (6) महावा--जो वसति (मकान) बहुत-से श्रमणों, भिक्षाचरों, ब्राह्मणों आदि के ठहरने के लिए गृहस्थ नये सिरे से आरम्भ करके बनवाता है, वह महावा कहलाती है। वह अकल्पनीय है। (7) सावद्या--जो वसति पांचों ही प्रकार के श्रमणों (निग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीवक) के लिए गृहस्थ बनाता है, वह सावद्या-शय्या कहलाती है। (8) महासावधा--जो सिर्फ जैन-श्रमणों के निमित्त ही गृहस्थ द्वारा बनवाई जाती है, वह महासावद्या-शय्या कहलाती है। 1. चर्णिकार के शब्दों में उपस्थाना की व्याख्या—'उवट्ठाणा-एते चेव करेता दुगणं अपरिहरेता पुणो करेति ।--अर्थात-उपस्थाना दोषयुक्त शय्या वह है, जहाँ ऋतुबद्धवास या वर्षावास-ये दोनों नियतकाल तक बिताकर उनसे दुगुना-दुगुना काल बिताए बिना ही पुनः ऋतुबद्धवास या वर्षावास किया जाए।" उदाहरण के लिए एक मासकल्प ठहरकर दो मास बाहर बिताना तथा एक वर्षावास करके दो वर्षावास अन्यत्र बिताना यह विधि है, इसका उल्लंघन करने पर उपस्थानाक्रिया लगती है। 2. चूणिकार महावा और सावद्या-शय्या का अन्तर बताते हुए कहते हैं "महावज्जा पासंडाणं अट्ठाए, एसा चेव वत्तध्वया, सावज्जा पंचण्हं समणाणं पगणित 2, एसा चेब क्त्तव्चया"--अर्थात --महावा पाषण्डों-- साधुवेषधारियों के लिए होती है, यह वक्तव्यता (गुरु-परम्परा) है, तथा सावद्या पाँच प्रकार के श्रमणों के लिए वनवाई जाती है, यह वक्तव्यता है। 3. 'महासावद्या' के सम्बन्ध में चूर्णिकारकृत व्याख्या—“महासावज्जा एगं समणजातं, समुद्दिस जाव भवणगिहाणि वा महता छज्जीवनिकाय-समारंभेणं महता आरंभसमारंभेणं अणंगपगारेहिच आरंभेहि संजयठाए छाविति, लिप्पंति संथारगा ओयटगा कुणति, वारं कति, पिधति वाडो।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org