________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध शोभनीय दिखाने की दृष्टि से वस्त्र को सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित करने तथा शीतल या उष्ण जल से धोकर उज्ज्वल बनाने का निषेध है। ऐसा करने से फैशन, साजसज्जा, विलास और सौकुमार्य आदि का साधु-जीवन में प्रवेश हो जाने की संभावना है, विभूषावृत्ति से साधु के चिकने कर्म बंधते हैं। 'बहुदेसिएण' या 'बहुदेवसितेण' की व्याख्या-वृत्तिकार ने इसका संस्कृत में 'वहूदेश्येन' रूपान्तर करके अर्थ किया है -बहुद्देश्येन = ईषद्बहुना अर्थात्-थोड़े-बहुत रूप में या बहुत बार थोड़ा-थोड़ा। / चूर्णिकार इसका 'बहुदिवसितं' रूपान्तर मानकर व्याख्या करते हैं-"बहुदिवसपिडित बहुदिवसितं, बहुदिवसितं, बहुगं वा बहुदिवसितं, लोद्धादिणा सीतोदएण वा"-अर्थात् लगातार बहुत दिनों तक का नाम बहुदिवसित है ! अथवा 'बहुदिवसितं' का अर्थ है-बहुत बार दिनों तक / निशीथचूणि में दोनों ही पाठों को मानकर व्याख्या की है---"देसोनामं पसती / एक्का पसती दो वा तिण्णि वा पसतीतो देसो भण्णति, तिण्हं परेण बहुदेसो भण्णति / अणाहारादिकक्केण वा संवासितेण, एत्थ एगारातिसंवासितं पि बहुदेवसियं भन्नति / " अर्थात्-देश का अर्थ है-'प्रसृति'-अंश, किनारी / एक दो या तीन किनारी तक देश कहलाता है / तीन से उपरान्त बहुदेश कहलाता है। कल्क आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित करके एक रात्रि तक रखना भी यहाँ बहुदेवसिक कहलाता है / वस्त्र-सुखाने का विधि-निषेध 575. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा क्त्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं णो अणंतरहिताए पुढवीए णो ससणिद्धाए जाव संताणए आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा। 576. से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा वत्थं आयावेत्तए वा पयावेत्तए वा, तहप्पगारं वत्थं थूणंसि वा गिहेलुगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अण्णयरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाते दुब्बद्ध दुणिक्खित्ते अणिकपे चलाचले णो आयावेज्ज वा पयावेज्ज वा। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर (ख) “विभूसायत्तियं भिक्खु कम्म बंधई चिक्कणं / " संसारसायरे घोरे जेण पडइ दुरुत्तरे / / -दशवकालिक सूत्र अ. 5 गा. 66 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 208 (ग) निशीथचणि उद्देशक 14, 10 465 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'ससणिद्वाए' से 'संतागए' तक का पाठ सू० 353 के अनुसार समझें। 4. संताणए' के बदले पाठान्तर हैं-ससंताणाय ससंताणाए / 5. निशीथभाष्य गाथा 4268 में देखिए 'थूणा' आदि पदों के अर्थ "थूणा उ होति वियली, गिहेलुओ उंबरो उ गायब्वो। उदूखलं उसुयाल, सिणाणपीढ तु कामजलं // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org