________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रु तस्कन्ध संखडि में जाना वर्जित होने के कारण वह वहां जा नहीं पाता, केवल उन पदार्थों की सुगन्ध से ललचा कर तथा उनकी सुगन्धि की प्रशंसा करके रह जाता है। ऐसा करने से साधु की स्वाद-लोलुपता और आसक्ति बढ़ जाती है, जो घोर कर्मबन्ध की कारण है।' 'आगंतारेसु' आदि पदों का अर्थ-आगंतारेसु= नगर के बाहर के घर, जिनमें आ-आ कर पथिक ठहरते हैं, उनमें, चूणि के अनुसार अर्थ है---आगंतारमार्ग, मार्ग में आगारगृह है- आगन्तागार; अथवा जहाँ आ-आ कर आगार (गृहस्थ) ठहरते हैं, उन आगन्तागारों में। परियावसहेसु भिक्ष आदि के मठों में, चूर्णिकार के अनुसार परिव्राजकादि के आवासों में / आसायपडियाए-आस्वादन की अपेक्षा से, या घ्राणसुख-राग-वश मुछिए गिद्ध गदिए अमोववन्ने-चारों एकार्थक-पे, किन्तु थोड़ा-थोड़ा अन्तर / अर्थ इस प्रकार हैं---मूच्छित, गृख, ग्रस्त और आसक्त / अपक्क-शस्त्र-अपरिणत वनस्पति आहार ग्रहण-निवेध 375. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा सालुयं वा विरालियं वा सासवणालियं वा', अण्णतरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणतं अफासुर्य लाभे संते गो पडिगाहेज्जा। 376. से भिक्खू वा 2 जाय समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा पिप्पाल वा पिप्पलिचुग्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरक्षुण्णं वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आमचं असत्थपरिणयं अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 377. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण पलंबजातं जाणेज्जा, तंजहा अंबपलंबं वा अंबाडगपलंबं वा तालपलंबं वा शिज्झिरिपलंबं वा सुरभिपलंबं वा सल्लइपलं 1. आचारांग वृत्ति, मूल पाठ आदि के आधार से पत्रांक 387-38 / 2. आगंतारो मग्गो, मग्गे गिहं, अहवा यत्र आगत्य आगत्यागारास्तिष्ठन्ति तं आगंतारागारं / आचारांग चूर्णि 3. परिवायगादीणं आवासो परियावसधो।' -आचारांग चूणि 4. आसायपडिता घाणसुहरागो। ---आचारांग चूर्णि 5. (क) आचारांग चूणि / (ख) आचारांग वृत्ति, पत्रांक 348 / 6. सालुयं के स्थान पर 'सालगं' मान कर चूर्णिकार अय करते हैं सालगं उप्पलकरगो, सालगं = उत्पलकन्द। 7. तुलना कीजिए सालुयं वा विरालियं, कुमुदुप्पलनालियं / मुणालियं सासवनालियं उच्छखंड अनिम्नु / –दश० 5/2/18 8. मराठी में आज भी 'मोरे' काली मिर्च के अर्थ में प्रयुक्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org