________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रतस्कन्छ औद्देशिकावि दोष-रहित आहार की एषणा __331. से भिक्खू वा 2 जाव पविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 4 अस्संपडियाए' एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्त कोतं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसट्ठ अभिहडं आहट्ट चेतेति, तं तहप्पगारं असणं वा 4 पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा बहिया णीहार्ड वा अणीहडं वा अत्तद्वियं वा अणतट्ठियं वा परिभुत वा अपरिभुत्तंमा आसेवितं वा अणासेवितं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणि बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स चत्तारि आलावगा भाणितव्वा / __ 332. [1]. से भिक्खू वा 2 जाव पविठे समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा 44 बहवे समणमाहण-अतिहि किवण-वणीमए पगणिय पगणिय समुद्दिस्स पाणाई जाय समारम्भ आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुयं अणेसणिज्जं ति मण्णमाणे लाभे संते जाव णो पडिगाहेज्जा। [2]. से भिक्खू वा 2 जाव पविठे समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा-असणं वा 4 बहवे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमए समुद्दिस्स पाणाई 4 जाव आह१ चेतेति, तं तहप्पगारं असणं या 4 अपुरिसंतरकडं अबहिया जोहडं अणत्तट्टियं अपरिभुत अणासेवितं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव णो पडिगाहेज्जा। अह पुण एवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं बहिया णीहडं अत्तट्टियं परिभुत्त आसेवितं फासुयं एसणिज्ज जाव पडिगाहेज्जा। 331. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी जब यह जाने कि किसी भद्र गृहस्थ ने अकिंचन निर्ग्रन्थ के लिए एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से प्राण, भूत जीव और सत्त्वों का समारम्भ (उपमर्दन) करके आहार बनाया है, साधु के निमित्त से आहार मोल लिया, उधार लिया है, किसी से जबरन छीनकर लाया है, उसके स्वामी की अनुमति के बिना लिया हुआ है तथा सामने (साधु के स्थान पर) लाया हुआ आहार दे रहा है, तो उस प्रकार का (कई दोषों युक्त) अशन, पान, खाद्य, और स्वाध रूप आहार दाता से भिन्न पुरुष ने बनाया हो, अथवा दाता (--अपुरुषान्तर) ने बनवाया हो, घर से बाहर निकाला गया हो, या न निकाला गया हो, उस दाता ने स्वीकार किया हो या न किया हो, उसी दाता ने उस आहार में से बहुत-सा खाया हो या न खाया हो; अथवा थोड़ा-सा सेवन किया हो, या न किया हो; इस प्रकार के आहार को अप्रासुक और अनेषणिक समझकर प्राप्त होने पर भी वह ग्रहण न करे। 1. अस्संपडियाए के स्थान पर चूणि में अस्सिपडियाए पाठान्तर है / 2. यहाँ जाव शब्द के अन्तर्गत शेष समग्र पाठ सूत्र 331 के अनुसार समझें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org