________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कंध से भिक्खू वा 2 अभिकखेज्जा ल्हसुगं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुणचोयगं वा ल्हसुणणालगं' वा भोराए वा पायए वा / से ज्जं पुण जाणेज्जा ल्हसुणं वा जाव ल्हसुणबीजं वा सअंडं जाव णो पडि गाहे ज्जा / एवं अतिरिच्छच्छिण्णे वि / तिरिच्छच्छिष्णे जाव' पडिगाहे ज्जा। 621. साधु धर्मशाला आदि स्थानों में जाकर, ठहरने के स्थान को देखभालकर विचार पूर्वक अवग्रह की याचना करे / वह अवग्रह की अनुज्ञा मांगते हुए उक्त स्थान के स्वामी या अधिष्ठाता (नियुक्त अधिकारी) मे कहे कि -आयुष्मन् गृहस्थ ! आपको इच्छानुसार - जितने समय तक और जितने क्षेत्र में निवास करने की आप हमें अनुज्ञा देंगे, उतने समय तक और उतने ही क्षेत्र में हम ठहरेंगे। हमारे जितने भी सार्मिक साधु यहाँ आयेंगे, उनके निवास के लिए भी काल और क्षेत्र की सीमा की अनुज्ञा मांगने पर जितने काल और जितने क्षेत्र तक इस स्थान में ठहरने की आपकी अनुज्ञा होगी. उतने काल और क्षेत्र में वे ठहरेंगे / नियत अवधि के पश्चात् वे और हम यहां से विहार कर देंगे। 622. उक्त स्थान के अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त हो जाने पर साधु उसमें निवास करते समय क्या करे ? वह यह ध्यान रखे कि-वहाँ (पहले से ठहरे हुए) शाक्यादि श्रमणों या ब्राह्मणों के दण्ड, छत्र, यावत् चमच्छेदनक आदि उपकरण पड़े हों, उन्हें वह भीतर से बाहर न निकाले और न ही बाहर से अंदर रखे, तथा किसी सोए हुए श्रमण या ब्राह्मण को न जगाए / उनके साथ किंचित् मात्र भी अप्रीतिजनक या प्रतिकूल व्यवहार न करे, जिससे उनके हृदय को आघात पहुंचे। 623. वह साधु या साध्वी आम के वन (बगीचे) में ठहरना चाहे तो सर्वप्रथम वहाँ उस आम्रवन का जो स्वामी या अधिष्ठाता (नियुक्त अधिकारी) हो, उससे वे पूर्वोक्त विधि से अवग्रह की अनुज्ञा प्राप्त करे कि आयुष्मन् ! आपकी इच्छा होगी उतने समय तक, उतने नियत क्षेत्र में हम आपके आम्रवन में ठहरेंगे, इसी बीच हमारे समागत सामिक भी इसी नियम का अनुसरण करेंगे / अवधि पूर्ण होने के पश्चात् हम लोग यहाँ से विहार कर जाएंगे। उस आम्रवन में अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करके ठहरने पर क्या करे ? यदि साधु आम खाना या उसका रस पीना चाहता है, तो वहाँ के आम यदि अंडों यावत मकड़ी के जालों से युक्त देखे-जाने तो उस प्रकार के आम्रफलों को अप्रासक एवं अनेषणीय जानकर ग्रहण न करे / 624. यदि साधु या साध्वी उस आम्रवन के आमों को ऐसे जाने कि वे ह तो अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित, किन्तु वे तिरछ कटे हुए नहीं हैं, न खण्डित है तो उन्हें अप्रासुक एवं अनेषणीय मानकर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। 625. यदि साधु या साध्वी यह जाने कि आम अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित 1. 'णालगं' के बदले कहीं कहीं 'नाल' पाठ है। 2. यहां जान मब्द 'तिरिच्छछिणे' से पडिगाहेज्जा' तक के पाठ का नत्र 625 के अनुसार सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org