________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र 786-61 415 आचारांग चूणि सम्मत पाठ के अनुसार 5 भावनाएं-(१) निर्ग्रन्थ प्रणीत पान-भोजन तथा अति मात्रा में आहार न करे, (2) निर्ग्रन्थ विभुषावर्ती न हो, (3) निर्ग्रन्थ स्त्रियों के मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को न निहारे, (4) निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन न करे, (5) स्त्रियों की (कामजनक) कथा न करे। ___आवश्यकचूणि में 5 भावनाओं का उल्लेख इसप्रकार है-(१) आहारगुप्ति, (2) विभूषावर्जन, (3) स्त्रियों की ओर न ताके (4) स्त्रियों का संस्तव-परिचय न करे, (5) प्रबुद्धमुनि क्षुद्र (काम) कथा न करे / तत्त्वार्थ सूत्र में भी 5 भावनाएं इस क्रम से बताई गई हैं—(१) स्त्रियों के प्रति रागोत्पादक कथा-श्रवण का त्याग, (2) स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, (3) पूर्वभुक्त-भोगों के स्मरण का त्याग, (4) गरिष्ठ और इष्ट-रस का त्याग तथा (5) शरीर संस्कार त्याग। इसी प्रकार स्थानांग सूत्र (हवें स्थान) में समवायांग सूत्र (6 वां समवाय) में तथा उत्तराध्ययन सूत्र (16 वां अध्ययन) में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों का वर्णन में भी इन पाँच भावनाओं का समावेश हो जाता है।' 'पणियं' आदि शब्दों के अर्थ चूणिकार के अनुसार-पणियं = स्निग्ध / रुक्खमपि णातिबई == रूखा सूखा आहार भी अति मात्रा में सेवन न करे। संतिभेदा =चारित्र में भेद हो जाता है / संतिविभंगा = विविध भंग-विभंग चित्तविभ्रम हो जाता है। पंचम महाव्रत और उसको पांच भावनाएं 786. अहावरं पंचमं भंते ! महत्वयं 'सव्वं परिग्गहं पच्चाइक्खामि। से अप्पं वा (क) 1. "इत्यो-पसु-पंडग-संसत्तसयणासणवज्जया, 2. इत्थीकह विवज्जणया, 3. इत्थीणं इंदियाण मालोयणवज्जणया 4. पुन्वरयपुव्वकीलियाणं अणणुसरणया 5. पणीताहार विवज्जणया / " -समवायांग सूत्र--समवाय 25 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि• पृ० 280-"1. “णो पणीयं पाण-भोयणं अतिमायाए आहारेत्ता भवति से निग्गथे 2. ..."अविभूसाणवाई से निग्गंथे 3. ...'णो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाइं निज्झाइत्ता भवति से निग्गंथे 4. णो इत्थी-पसु-पंडगसंसत्ताई सयणाऽऽसणाई सेवेत्ता भवइ से निग्गंथे 5. "जो इत्थीग कह कहेता भवति से निग्गंथे." (ग) आहारगुत्ते अविभूसियप्पा, इत्थि ण णिज्झाई, न संथवेज्जा। बुद्ध मुणी खुड्डकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं // 4 // -आवश्यक चणि, प्रतिक्रमणाऽऽध्ययन 10 143-147 (ध) "स्त्रीराग-कथा-श्रवण-तन्मनोहरांगनिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस--स्वशरीर-संस्कारत्यागा: पञ्च / " -तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि अ० 7/7 2. आचा० चुणि मू० पा० टि० पृष्ठ 286 -पणियं सिद्ध रुक्खमपि णातिबहं। संति विद्यते, भेद चरित्ताओ। विविधो भग विमंगः चित्तविभ्रम इत्यर्थः / धम्माओ भंस:--पतनमित्यर्थः अइणिद्ध ण। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org