SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 867
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध [3] इसके अनन्तर तीसरी भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हुई पूर्वरति (पूर्वाश्रम में की हुई) एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण न करे / केवली भगवान् कहते हैं—स्त्रियों के साथ में की हुई पूर्वरति एवं पूर्वकृत-कामक्रीड़ा का स्मरण करने वाला साधु शान्तिरूप चारित्र का नाश तथा शान्तिरूप ब्रह्मचर्य का भंग करने वाला होता है। तथा शान्तिरूप केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ साधु स्त्रियों के साथ की हई पूर्वरति एवं पूर्व कामक्रीड़ा का स्मरण न करे। यह तीसरी भावना है। [4] इसके बाद चौथी भावना इस प्रकार है-निर्ग्रन्थ अतिमात्रा में आहार-पानी का सेवन न करे, और न ही सरस स्निग्ध-स्वादिष्ट भोजन का उपभोग करे / केवली भगवान् कहते है जो निग्रन्थ प्रमाण से अधिक (अतिमात्रा में) आहार-पानी का सेवन करता है, तथा स्निग्ध-सरस-स्वादिष्ट भोजन करता है, वह शान्ति रूप चारित्र का नाश करने वाला, शान्तिरूप ब्रह्मचर्य को भंग करने वाला होता है, तथा शान्तिरूप केवली-प्रज्ञप्त धर्म से भ्रष्ट हो सकता है / इसलिए निग्रन्थ को अति मात्रा में आहार-पानी का सेवन या सरस स्निग्ध भोजन का उपभोग नहीं करना चाहिए। यह चौथी भावना है। [5] इसके अनन्तर पंचम भावना का स्वरूप इस प्रकार है--निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या (वसति) और आसन आदि का सेवन न करे। केवली भगवान् कहते हैं---जो निन्थ स्त्री-पशु-नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन आदि का सेवन करता है, वह शान्तिरूप चारित्र को नष्ट कर देता है, शान्तिरूप ब्रह्मचर्य भंग कर देता है और शान्तिरूप केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है / इसलिए निम्रन्थ को स्त्री-पशु-नपुंसक संसक्त शय्या और आसन आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। यह पंचम भावना है। 788. इस प्रकार इन पंच भावनाओं से विशिष्ट एवं स्वीकृत मैथुन-विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत का सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करने, उसका पालन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप सम्यक् आराधन हो जाता है। भगवन् ! यह मैथुन विरमणरूप चतुर्थ महाव्रत है। विवेचन-चतुर्थ महावत की प्रतिज्ञा और उसको पाँच भावनाएं--प्रस्तुत सूत्रत्रय में पूर्ववत् उन्हीं तीन बातों का उल्लेख चतुर्थ महावत के विषय में किया गया है-(१) चतुर्थ महाव्रत की प्रतिज्ञा का रूप, (2) चतुर्थं महाव्रत की पाँच भावनाएं, (3) उसके सम्यक् आराधन का उपाय / इन तीनों का विवेचन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।' अन्य शास्त्रों में पंच भावनाओं का उल्लेख-समवायांग सूत्र में इस क्रम से पंच भावनाओं का उल्लेख है-(१) स्त्री-पशु नपुसक-संसक्त शय्या और आसन का वर्जन, (2) स्त्री कथा विवर्जन, (3) स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करना, (4) पूर्वरत एवं पूर्वक्रीड़ित का स्मरण न करना, (5) प्रणीत (स्निग्ध-सरस) आहार न करना। 1. आचारांग मूलपाठ सटिप्पण प० 287-288 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy