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________________ 70 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 'कोद्विगातो वा कोलेज्जातो वा अस्संजए भिक्खुपडियाए उक्कुज्जिय अवउज्जिय ओहरिय आहट्ट दलएज्जा / तहप्पगारं असणं वा 4 मालोहडं ति गच्चा लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 365. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि यह जाने कि अशनादि चतुर्विध आहार गृहस्थ के यहाँ भीत पर, स्तम्भ पर, मंच पर, घर के अन्य ऊपरी भाग (आले) पर, महल पर, प्रासाद आदि की छत पर या अन्य उस प्रकार के किसी ऊँचे स्थान पर रखा हुआ है, तो इस प्रकार के ऊँचे स्थान में उतार कर दिया जाता अशनादि चतुर्विध आहार अप्रासुक. एवं अनेषणीय जान कर साधु ग्रहण न करे। केवली भगवान् कहते है-यह कर्मबन्ध का उपादान-कारण है; क्योंकि असंयत गृहस्थ भिक्षु को आहार देने के उद्देश्य से (ऊंचे स्थान पर रखे हुए आहार को उतारने हेतु) चौकी, पट्टा, सीढ़ी (निःश्रेणी) या ऊखल आदि को लाकर ऊँचा करके उस पर चढ़ेगा। ऊपर चढ़ता हुआ वह गृहस्थ फिसल सकता है या गिर सकता है। वहाँ से फिसलते या गिरते हुए उसका हाथ, पैर, भजा, छाती, पेट, सिर या शरीर का कोई भी अंग (इन्द्रिय समूह) टूट जाएगा, अथवा उसके गिरने से प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन हो जाएगा, वे जीव नीचे (धूल में) दब जाएँगे, परस्पर चिपक कर कुचल जाएंगे, परस्पर टकरा जाएंगे, उन्हें पीड़ाजनक स्पर्श होगा, उन्हें संताप होगा, वे हैरान हो जाएंगे, वे त्रस्त हो जाएंगे, या एक (अपने ) स्थान 1. निशीथ चणि (उ०१७) में इन शब्दों की व्याख्या इस प्रकार है--'पुरिसपमाणा होणाहिया वा वि चिक्खलमयो कोट्ठिया भवति / कोलेज्जो नाम धंसमओ कडबल्लो सट्टई वि भण्णति, अन्न भणंति उट्टिया / उवरिहुत्तकरणं उक्किज्जित, उद्धाए तिरियहुत्तकरणं अवकुज्जिया वा, ओहरिय त्ति घेढियमादिसु आरुभि ओतारेति / अहवा उच्चं कुज्जा उक्कज्जिया दंडायतं तद्वदगह णाति, कायं कन्ज कृत्वा गृह गाति, ओणमिय इत्यर्थः / ' अर्थात पुरुषप्रमाण अथवा न्यूनाधिक ऊँची चिकनी कोष्टिका होती है। कोलेज्ज-कहते हैं धस जाने वाली चटाई का बाड़ जिसे सट्टा (टाटी) भी कहते हैं / अन्य आचार्य इसे उष्ट्रिका कहते हैं। ऊपर गर्दन करना उक्कज्जित है, ऊँचा होकर तिरछी गर्दन करना अबकुज्जिया है, ओहरिय कहते हैं—जहाँ ऊँची चौकी आदि पर चढ़ कर उतारा जाता है। अथवा उक्फज्जिया का अर्थ है-चा उठकर दंडायमान होकर आहार ग्रहण करता (पकड़ना) है। शरीर को कुबड़ा करके -. अर्थात् नीचे झुककर / 2. इसके स्थान पर 'कुट्ठिगाओ', 'कोठितासो', 'कोठ्ठियाओ', 'कोहिगाओ' आदि पाठान्तर मिलते हैं। चूणिकार ने 'कोहिगा' पाठ ही माना है, जिसका अर्थ होता है--अन्न-संग्रह रखने की कोठी / 3. 'कोलेज्जातो' के स्थान पर चर्णिकार 'कालेज्जाओ' पाठ मान कर व्याख्या करते हैं-'कालेज्जाओ वसमओ उरि संकुओ मूडिंगहो-भूमीए वा खणित भूमीघरगं उरि संकडं हेट्ठा विच्छिण्णं अग्गिणा बहित्ता कति, ताहि सुचिरं पि गोहमादी धणं अच्छति' अर्थात्-कालिज्ज का अर्थ है--बांस का बनाया हुआ भूमिगह, जो ऊपर से संकड़ा और नीचे से चौड़ा हो, अग्नि से जब उस भूमि को जला देते हैं, तब उसमें चिरकाल तक गेहूँ आदि अन्न अधिक होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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