________________ प्रथम अध्ययन : सप्तम उद्देशक : सूत्र 365-66 सत्तमो उदेसओ सप्तम उद्देशक मालाहुत दोष-युक्त आहार ग्रहण निषेध 365. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा-असणं वा 4' खंधसि वा थंभंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासादसि वा हम्मियतलंसि वा अग्गयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायंसि उवणिक्खित्ते सिया। तहप्पगारं मालोहडं असणं वा 4 अफासुयं णो पडिगा केवलो बूया--आयाणमेयं / अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलग वा णिस्सेणि वा उदूहलं वा अवहट्ट उस्सविय दुरु हेज्जा / से तत्थ दुरुहमाणे पालेग्ज वा पवडेज्ज वा। से तत्थ पयलमाणे मा पवडमाणे वा हत्थं वा पायं वा बाहु वा ऊरुं वा उदरं वा सीसं वा अण्णतरं वा कायंसि इंदियजायं लूसेज्ज वा, पाणाणि वा 45 अभिहणेज्ज वा, वत्तेज वा, लेसेज्ज वा, संघसेज्ज वा, संघटेज्ज वा, परियावेज्ज वा, किलामेज्ज वा, |उद्दवेज्ज वा ?,] ठाणाओ ठाणं संकामेज्ज वा, [जोवियाओ ववरोवेज्ज वा ?] / तं तहप्पगारं मालोहडं असणं वा 4 लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 366. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा --असणं वा 4 1. यहां 'असणं वा' के बाद 4' का अंक शेष तीनों आहारों का सूचक है। 2. खंध सि वा' की व्याख्या चणि में इस प्रकार की गयी है—खंधो पागारओ, अथवा खंधो, सो तज्जातो अतज्जातो वा, अतज्जातो अउवीए गोउलादिसु उवनिक्खित्तं होज्ज, अतज्जातो धरे चेक, पाहाणखंधोवा, तज्जातो गिरिणगरे, अतज्जातोऽन्यत्र / अर्थात् स्कन्ध प्राकारक का नाम है। अथवा स्कन्ध दो प्रकार का होता है-- तज्जात और अतज्जात / अतज्जात वह है, जो जंगल में, गोकुल आदि में डाला जाता है / अतज्जात स्कन्ध्र घर में ही पापाण का बना हुआ स्कन्ध होता है, तज्जात होता है गिरिनगर में—उमी पत्थर से जो बनता है। 3. 'अवहटु' का अर्थ चूणिकार करते हैं—'अवहट्ट-अण्णतो गिहित्ता अण्णहि ठवेति / ' अवहट्ट का अर्थ हैं...-अन्य स्थान से लेकर अन्य स्थान में रख देता है। 4. 'दुरुहंज्जा' के स्थान पर 'दुरुहेज्ज' तथा 'दुहेज्जा' पाठान्तर मिलते हैं / अर्थ समान है। 'पाणाणि वा' के आगे '4' का चिन्ह भयाणि वा, जीवाणिवा, सत्ताणि वा' का सूचक है। 6. इसके स्थान पर 'वित्तासिज्ज', 'वित्तसेज्ज' आदि पाठान्तर मिलते हैं अर्थ होता है -विशेष रूप से त्रास देगा। यहाँ भी आवश्यकोक्त ऐर्यापथिकी सूत्र के इस पाठ के अनुसार क्रम माना है---'अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठागायोडागं, संकामिया, जीवियाओ ववरोविया।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org