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________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 513-48 227 है, दृढ़ संहननवाला है, या इसके शरीर में रक्त-मांस संचित हो गया है, इसकी सभी इन्द्रियाँ परिपूर्ण हैं / इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा बोले / 541. साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गोजाति के पशुओं को देखकर ऐसा न कहे, कि ये गायें दूहने योग्य हैं अथवा इनको दूहने का समय हो रहा है, तथा यह बैल दमन करने योग्य है, यह वृषभ छोटा है, या यह वहन करने योग्य है, यह रथ में जोतने योग्य है, इस प्रकार की सोवद्य यावत् जीवोपधातक भाषा का प्रयोग न करे / 542. वह साधु या साध्वी नाना प्रकार की गायों तथा गोजाति के पशुओं को देखकर इस प्रकार कह सकता है, जैसे कि-यह वृषभ जवान है, यह गाय प्रौढ़ है, दुधारू है, यह बैल बड़ा है, यह संवहन योग्य है। इसप्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात से रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। __543. संयमी साधु या साध्वी किसी प्रयोजनवश किन्हीं बगीचों में, पर्वतों पर या वनों में जाकर वहां बड़े-बड़े वृक्षों को देखकर ऐसे न कहे, कि-यह वृक्ष (काटकर) मकान आदि में लगाने योग्य है, यह तोरण नगर का मुख्य द्वार बनाने योग्य है, यह घर बनाने योग्य है, यह फलक (तख्त) बनाने योग्य है, इसकी अर्गला बन सकती है, या नाव बन सकती है, पानी की बड़ी कुडी अथवा छोटी नौका बन सकती है, अथवा यह वृक्ष चौकी (पीठ) काष्टमयी पात्री, हल, कुलिक, यंत्रयष्टी (कोल्हू) नाभि काष्ठमय अहरन, काष्ठ का आसन आदि बनाने के योग्य है अथवा काष्ठशय्या (पलंग) रथ आदि यान उपाश्रय आदि के निर्माण के योग्य है। इसप्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा साधु न बोले / 544. संयमी साधु-साध्वी किसी प्रयोजनवश उद्यानों, पर्वतों या वनों में जाएं, वहाँ विशाल वृक्षों को देखकर इस प्रकार कह सकते हैं--कि ये वृक्ष उत्तम जाति के हैं, दीर्घ (लम्बे) है, वृत्त [गोल] हैं, ये महालय हैं, इनके शाखाएँ फट गई हैं, इनकी प्रशाखाएं दूर तक फैली हुई हैं, ये वृक्ष मन को प्रसन्न करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं, प्रतिरूप हैं / इस प्रकार की असावद्य यावत् जीवोपघात-रहित भाषा का विचारपूर्वक प्रयोग करे। 545. साधु या साध्वी प्रचुर मात्रा में लगे हुए वन फलों को देखकर इस प्रकार न कहे जैसे कि--ये फल पक गए हैं, या पराल आदि में पकाकर खाने योग्य हैं, ये पक जाने से ग्रहण कालोचित फल हैं, अभी ये फल बहुत कोमल हैं, क्योंकि इनमें अभी गुठली नहीं पड़ी है, ये फल तोड़ने योग्य या दो टुकड़े करने योग्य हैं। इस प्रकार की सावध यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोले। 546. साधु या साध्वी अतिमात्रा में लगे हुए वनफलों को देखकर इसप्रकार कह सकता है, जैसे कि ये फलवाले वृक्ष असंतृत-फलों के भार से नम्र या धारण करने में असमर्थ हैं, इनके फल प्राय: निष्पन्न हो चुके हैं, ये वृक्ष एक साथ बहुत-सी फलोत्पत्ति वाले हैं, या ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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