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________________ 120 आचारांग सूत्र---द्वितीय व तस्कन्ध वा उक्कंबिए वा छत्ते वा लेते वा घट्टे वा मठे वा संमछे वा संपधूविए वा / ' तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा / अह पुणेवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे जाव आसेविते, पडिलेहित्ता पमज्जिता ततो संजयामेव जाव चेतेज्जा। 416. से भिक्खू बा 2 से ज्ज पुण उबस्सयं जाणेज्जा-अस्संजते भिक्खुपडियाए खुड्डियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुज्जा जहा पिडेसणाए जाव संथारगं संथारेज्जा बहिया वा णिण्णक्खु / तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए णो ठाणं वा 3 चेतेन्जा। अह पुणेवं जाणेज्जा-पुरिसंतरकडे जाव आसेविते, पडिलेहित्ता पमज्जित्ता ततो संजयामेव जाव चेतेज्जा। 417. से भिक्खू बा 2 से ज्ज पुण उवरसयं जाणेज्जा-अस्संजए भिक्खुपडियाए उदकपसूताणि कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि का पुष्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि सुगंधीकता ।"वसग कडणोक्कवण छावण लेवण दुवारभूमी य। सप्परिकम्मा सेज्जा (वसही) एसा मूलोत्तरगुणसु॥' अर्थात्-कडितो-चटाइयों आदि के द्वारा चारों ओर से आच्छादित या सुसंस्कृत करना, ओकम्बितो-खंभों पर बांसों को तिरछे रखना, छत्तो-घास दर्भ आदि से ऊपर का भाग आच्छादित कर देना, लेत्तो—दीवार आदि पर गोबर आदि से लीपना. ये उत्तरगुण (उत्तर परिकर्म) हैं, जो मूलगुणों (मूल परिकर्म) को नष्ट कर देते हैं / घट्ठा-चूने, पत्थर आदि खुरदरे पदार्थ से घिस कर विषम स्थान को सम बनाना, मट्ठा-कोमल बनाना, समट्ठा-साफ कर देना, संक्धूविता धूप आदि सुगन्ध द्रव्यों से दुर्गन्ध को सुगन्धित करना। 1. निशीथ चूणि उ. 5 में, मलयगिरिसूरिविरचित वृहत्कल्पवृत्ति (पृ० 166) में तथा कल्पसूत्र किरणावली व्याख्या (पृ०१३५) में भी इन शब्दों की व्याख्या क्रमशः इसी प्रकार मिलती है।-म० 2. यहाँ जाव शब्द से पुरिसंतरकडे से लेकर आसेविते तक का समग्र पाठ सूत्र 332 के अनुसार समझें / 3. यहाँ जाव शब्द पिवणाध्ययन में पठित महाल्लियाओ कुज्जा से लेकर संघारगं तक के पाठ का सूचक है, सूत्र 338 के अनुसार / 4. "णिणाखु के स्थान पर 'णिण्णक्ख पाठ मानकर चर्णि में व्याख्या की गयी है--णिणखणीणतातं (णीणवाति) अंतो वा बाहिं वा' अर्थात्----अन्दर ले जाता है या बाहर निकालता है। 5. यहाँ जाव शब्द से 'अपरिसंतरकडे' से लेकर अनासेविए तक का समग्र पाठ सू० 331 के अनुसार समझें। यहाँ ठाणं वा के बाद '3' का चिन्ह सेज वा णिसीहियं वा पाठ का सूचक है। 7. यहां जाव शब्द से संजयामेव से लेकर चेतेम्जा तक का पाठ सूत्र 412 के अनुसार समझें। 2. इस पंक्ति की व्याख्या चर्णिकार के शब्दों में-उदए पसूपाणि-कंवाणिवा......", एवं मूल-गीत आणि उदगप्पसूयाणि वा इतराणि वा संजयट्ठाए गोमेज्जा' अर्थात् पानी में पैदा हुए कंद "एवं मूल, बीज, हरियाली, जल में पैदा हए अन्य पदार्थों को साधु के निमित्त से बाहर निकाले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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