________________ छठा अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 562-63 एक सार्मिक साधु के उद्देश्य से प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके पात्र बनवाया है, और वह उसे औद्देशिक, क्रीत, पामित्य, अच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहृत आदि दोषों से युक्त पात्र ला कर देता है, वह अपुरुषान्तरकृत हो या पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो या अनासेवित उसे अप्रासुक और अनेषणीय समझकर मिलने पर भी न ले। जैसे यह सूत्र एक साधर्मिक साध के लिए है, वैसे ही अनेक सार्मिक साधुओं, एक साधमिणी साध्वी एवं अनेक साधर्मिणी साध्वियों के सम्बन्ध में भी शेष तीन आलापक समझ लेने चाहिए / जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में चारों आलापकों का वर्णन है, वैसे ही यहाँ समझ लेना चाहिए / और पांचवां आलापक (पिण्डषणा अध्ययन में) जैसे बहुत से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण आदि को गिन-गिन कर देने के सम्बन्ध में है, वैसे ही यहां भी समझ लेना चाहिए। 561. यदि साधु-साध्वी यह जाने कि असंयमी गृहस्थ ने भिक्षुओं को देने की प्रतिज्ञा करके बहुत-से शाक्यादि श्रमण, ब्राह्मण आदि के उद्देश्य से पात्र बनाया है, और वह औद्देशिक, क्रीत आदि दोषों से युक्त है तो.........."उसका भी शेष वर्णन वस्त्रैषणा के आलापक के समान समझ लेना चाहिए। विवेचन--एषणादोषों से युक्त तथा मुक्त पात्र ग्रहण का निषेध-विधान प्रस्तुत सूत्रद्वय में वस्त्रषणा में बताये हुए विवेक की तरह पात्र-ग्रहणषणा विवेक बताया गया है। सारा वर्णन वस्त्रषणा की तरह ही है: सिर्फ वस्त्र के बदले यहाँ 'पात्र' शब्द समझना चाहिए / बहुमूल्य पात्र-ग्रहण निषेध 562. से भिक्खू वा 2 से ज्जाइं पुण पायाई जाणेज्जा विरूवरूवाई महद्धणमोल्लाई, तंजहा अयपायाणि वा तउपायाणि वा तंबपायाणि वा सीसगपायाणि वाहिरण्णपायाणि वा सुबष्णपायाणि वा रोरियपायाणि वा हारपुडपायाणि वा मणि-काय-कंसपायाणि वा संखसिंगपायाणि वा दंतपायाणि वा चेलपायाणि वा सेलपायाणि वा चम्मपायाणि वा, अण्णयराणि वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई महद्धणमोल्लाई पायाई अफासुयाई जाव नो पडिगाहेज्जा। 563. से भिक्खू वा 2 से ज्जाईपुण पायाईजाणेज्जा विरूवरूवाई महद्धणबंधणाई तंजहा-अयबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि वा, अण्णयराइ वा तहप्पगाराइ महद्धणबंधणाइ अफासुयाइ' जाव णो पडिगाहेज्जा। 1. "सोसगपायाणि वा हिरण्णपायाणि वा" अलग-अलग पदों के बदले किसी-किसी प्रति में--'सीसम हिरम्न-सुबन्न-रोरियाहारपुड-मणि-काय-कंस-संख-सिंग-दंत-चेल-सेलपायाणि वा चम्मपायाणि वा' एसा समस्त पद मिलता है। 2. निशीथचणि 11/1 में "हारपुडपात्र' का अर्थ किया गया है-हारपुडं णाम अयमाद्याः पात्रविशेषा मौक्तिकलताभिरुपशोभिताः ।"---अर्थात् हारपुट लोहादिविशिष्ट पात्र है और जो मोतियों की बेला से सुशोभित हो। 3. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अफासुयाइ" से लेकर णो पडिगाहेज्जा' तक का पाठ सू० 325 के अनुसार समझें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org