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________________ 250 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्दम्य बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक अकल्पनीय विमोक्ष 204. से भिक्खू परक्कमेज्ज वा चिठ्ठज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयट्टज्ज वा सुसाणंसि' वा सुग्णागारंसि वा रुक्खमूलसि वा गिरिगुहंसि वा कुभ, रायतणंसि वा हुरत्था वा, कहिचि बिहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्त गाहावती बूया-आउसंतो समणा ! अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुछणं वा पाणाइ भूताई जीवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कोयं पामिच्चं अच्छेज्जं अणिसळें अभिहडं आहट्ट चेतेमि आवसहं वा समुस्सिणामि, से भुजह वसह आउसंतो समणा!। तंभिक्स गाहावति समणसं सववस पडियाइक्खे-आउसंतो गाहावती ! णो खलु ते क्यणं आढामि, णो खल ते वयणं परिजाणामि, जो तुम मम अट्ठाए असणं या 4 वत्थं वा 4 पाणाई 4 समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेज्ज अणिसट्ठ अभिहडं आहट्ट चेतेसि आवसहं वा समुस्सिणांसि / से विरतो आउसो गाहावती! एतस्स अकरणयाए / 205. से भिक्खू परक्कमेज्ज वा जाव' हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्ख उव. सकेमिस्तु गाहावती आतगताए पेहाए असणं वा 4 बस्थं वा 4 पाणाई 4 समारम्भ जाव' आहट्ट चेतेति आवसहं वा समुस्सिणाति तं भिक्खु परिघासेतु। तं च भिक्खू जाणेज्जा सह 1. चूणि में 'सुसाणंसि' का अर्थ इस प्रकार किया है-"सुसाणस्म पासेठ्ठाति' अब्भासे वा सुण्णघरे या ठितओ होज्ज, रुक्समूले वा, जारिसो रुक्खमूलो णिसीहे भणित्तो, गिरिगुहाए वा'-इसका अर्थ विवेषन में दिया है। 2. 'चैतेमि' पद के बदले कहीं 'करेमि' पद मिलता है, उसके सम्बन्ध में चूणिकार का मत-केयि भणति करेमि' तं तु ण युज्जति, जेण तं आहियमेव, आहियस्स करण न विरजति', अर्थात् - कई 'करेमि' पाठ - कहते हैं, वह उचित नहीं लगता, क्योंकि दाता ने जब सामने लाकर पदार्थ रख दिया, तब उस माहित - (सामने रखे हुए) का करना' संगत नहीं होता। 3. इसकी व्याख्या चूर्णिकार करते हैं-एवं णिमंतितो सो साहू तो वि पडिसेहयवं, कहं ? बुच्चइ 'त भिक्न गाहावति समाणं सक्यस पडियाइक्लेज्जा / ' तमिति तं दातारं / ' अर्थात् - इस प्रकार निमंत्रित किये जाने पर उस साधु को (उक्त दाता को) निषेध कर देना चाहिए, कैसे ? कहते हैं-उस दाता गृहस्थ को वह भिक्षु सम्मानपूर्वक, सुवचनपूर्वक मना कर देना चाहिए। 4. चणि में पाठान्तर है---'जो खलु भे एवं बयणं पडिसुमि, कतरं ? जं मम मलसि—पाउसंतो समणा ! अहं खलु तुभं अट्ठाते असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, जाव प्रावसहं समुस्सिमामि / " अर्थात तुम्हारी यह बात मैं स्वीकार नहीं करता, कोन सी ? जो तुमने मुझे कहा था--"आयुष्मन् श्रमण ! मैं तुम्हारे लिए अशनादि यावत् पावसथ (उपाश्रय) निर्माण करूंगा।" 5. यहाँ 'जाव' शब्द से पूरा पाठ 204 सूत्र के अनुसार ग्रहण करना चाहिए। 6. यहाँ का पूरा पाठ 204 सूत्रानुसार ग्रहण करें। 7. यहाँ का पूरा पाठ 204 सूत्रानुसार ग्रहण करें / 8. यहाँ का पूरा पाठ 204 सूत्रानुसार ग्रहण करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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