________________ 25 अष्टम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 203 वचनदण्ड, (3) कायदण्ड / मनोदण्ड के तीन विकल्प हैं-(१) रागात्मक मन, (2) द्वेषात्मक मन और (3) मोहयुक्त मन / (1) झूठ बोलना, (2) वचन से कह कर किसी के ज्ञान का घात करना, (3) चुगली करना, (4) कठोर वचन कहना, (5) स्व-प्रशंसा और पर-निन्दा करना, (6) संताप पैदा करने वाला वचन कहना तथा (7) हिंसाकारी वाणी का प्रयोग करना-ये वचनदण्ड के सात प्रकार हैं। (1) प्राणिवध करना, (2) चोरी करना, (3) मैथुन सेवन करना, (4) परिग्रह रखना, (5) प्रारम्भ करना, (6) ताड़न करना, (7) उग्र आवेशपूर्वक डराना-धमकाना; कायदण्ड के ये सात प्रकार हैं। दण्ड-समारम्भ का अर्थ यहाँ दण्ड-प्रयोग है। चूकि मुनि के लिए तीन करण (१.कृत, 2. कोरित और 3. अनुमोदन) तथा तीन योग (1. मन, 2. वचन और 3. काय के व्यापार से हिंसादि दण्ड का त्याग करना अनिवार्य है / इसलिए यहाँ कहा गया है - मुनि पहले सभी दिशा-विदिशामों में सर्वत्र, सब प्रकार से, षट्कायिक जीवों में से प्रत्येक के प्रति होने वाले दण्ड-प्रयोग को, विविध हेतुओं से तथा विविध शस्त्रों से उनकी हिंसा की जाती है, इसे भलीभौति जान ले, तत्पश्चात् तीन करण, तीन योग से उन सभी दण्ड-प्रयोगों का परित्याग कर दे। निम्रन्थ श्रमण दण्डसमारम्भ से स्वयं डरे व लज्जित हो, दण्ड-समारम्भकर्ता साधुओं पर साधु होने के नाते लज्जित होना चाहिए; जीवहिंसा तथा इसी प्रकार अन्य असत्य, चोरी आदि समस्त दण्ड-समारम्भों को महान अनर्थकर जानकर साधु स्वयं दण्डभीरु-अर्थात् हिंसा से भय खाने वाला होता है, अतः उसको उन दण्डों से मुक्त होना चाहिए।' प्रस्तुत सूत्र में दण्ड-समारम्भक अन्य भिक्षुओं से लज्जित होने की बात कहकर बौद्ध, वैदिक आदि साधुओं की परम्परा की अोर अंगुलि-निर्देश किया गया है। वैदिक ऋषियों में पचन-पाचनादि के द्वारा दण्ड-समारम्भ होता था। बौद्ध-परम्परा में भिक्षु स्वयं भोजन नहीं पकाते थे, दूसरों से पकवाते थे, या जो भिक्षु-संघ को भोजन के लिए आमंत्रित करता था, उसके यहाँ से अपने लिए बना भोजन ले लेते थे, विहार आदि बनवाते थे। वे संघ के निमित्त होने वाली हिंसा में दोष नहीं मानते थे। . प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. (ब) चारित्रसार 19 / 5 / / (ख) “पडिकमामि तीहि वहि-मकरंडेग, क्यदंडेणं, कायदंडेणं--प्रविश्यक सूत्र / 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 269 / 3. पायारो (मुनि नथमल जी) पृ० 312 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org