________________ 248 माचारोंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तं परिणाय मेहावी वा सय एतेहि काएहि दंडं समारंमज्जा, वह एतेहि काएहि दंडं समारभावेज्जा, वण्णे एतेहि काहि दंडं समारभते वि समणुजाणेजा। ... जे चणे एतेहिं काएहि दह समारभंति तेसि पि वयं लज्जामो। तं परिण्णाय मेहावी तंवा दंडं अण्णं वा दंणं णो दंडभी दंड समारभेज्जासि ति बेमि / // पडमो उद्देसओ समतों // 203. ऊँची, नीची एवं तिरछी, सब दिशाओं (और विदिशाओं) में सब प्रकार से एकेन्द्रियादि जीवों में से प्रत्येक को लेकर (उपमनरूप) कर्म-समारम्भ किया जाता है। मेधावी साधक उस (कर्मसमारम्भ) का परिज्ञान (विवेक) करके, स्वयं इन षट्जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ न करे, न दूसरों से इन जीवनिकायों के प्रति दण्ड समारम्भ करवाए और न ही जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करने वालों का अनुमोदन करे। जो अन्य दूसरे (भिक्षु) इन जीवनिकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करते हैं, उनके (उस जघन्य) कार्य से भी हम लज्जित होते हैं। दण्ड महान् अनर्थकारक है)-इसे दण्डभीह मेधावी मुनि परिज्ञात करके उस (पूर्वोक्त जीव-हिंसा रूप) दण्ड का अथवा मृषावाद प्रादि किसी अन्य दण्द का दण्ड-समारम्भ न कले। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--शब्द-कोष के अनुसार 'दण्ड' शब्द निम्नोक्त अर्थों में प्रयुक्त होता है-(१) लकड़ी आदि का डंडा (2) निग्रह या सजा करना, (3) अपराधी को अपराध के अनुसार शारीरिक या प्रार्थिक दण्ड देना, (4) दमन करना, (5) मन-वचन-काया का अशुभ व्यापार, (6) जीवहिंसा तथा प्राणियों का उपमर्दन आदि / यहाँ 'दण्ड' शब्द प्राणियों को पीड़ा देने, उपमर्दन करने तथा मन, वचन और काया का दुष्प्रयोग करने के अर्थ में प्रयुक्त है। - दण्ड के प्रकार-प्रस्तुत प्रसंग में दण्ड तीन प्रकार के बताए हैं-(१) मनोदण्ड, (2) पाडियक्कं डंडं प्रारभति / जतोऽय मुवदेसो "तं परिणाय मेहावी / ' अर्थात् षट्कायों में प्रत्येक-~ प्रत्येक काय के प्रति दण्ड प्रारम्भ-समारम्भ करता है, उसे ही शास्त्र में कहा है-पाडियवक आरभंति / क्योंकि यह उपदेशात्मक सूत्र पंक्तियाँ है, इसीलिए आगे कहा है-तं परिणाय / 1. इसके बदले चूणि में पाठान्तर है-लेव सयं छज्जीवकायेसु समारंभेज्जा, मो वि अण्णे एतेसु कायेसु डंडं समारमाविज्जा, भाव समणुजाणिज्जा / अर्थात् --स्वयं षड्जीवनिकायों के प्रति दण्डसमामा करे, न ही दूसरों से इन्हीं जीवकायों के प्रति दण्डसमारम्भ करावे, और न ही दण्ड समारम्भ करने वाले का अनुमोदन करें। . २..(क) पाइप्रसद्दमहण्णवो पृ० 451, (ख) आचा० शीला टीका पत्रांक 269 / (ग) अभिधान राजेन्द्र कोष भा० 4 पृ. 2420 पर देखें--- दण्यते व्यापाराते प्राणिनो मेम स दण्ड:--प्राचा० 1 श्रू० 2 0 / ..... दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षगैहिंसामानने, भूतोपमर्दै-धर्मसार / दण्डयति पीडामुत्पावयतीति दण्डः दुःखविशेषे--सूत्र कु. 1 श्रु. 5.0 1 उ० / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org