________________ मष्टम अध्ययम : प्रथम उदेशक : सूत्र 203 - गुण-सम्यग्दर्शन-दर्शन-चारिष में धर्म है, जिसने जीव, अजीव प्रादि का परिज्ञान हो, लत्त्वभूत पदार्थों पर श्रद्धा हो और यथोक्त मोक्षमार्च का आचरण हो / / __ वास्तव में मात्मा का स्वभाव ही धर्म है। 'पूज्यपाद देवनन्दी ने इस बात का समर्थन किया है ग्रामोऽरव्यमति द्वेश निकसोऽतात्मशिनाम / दृष्टांत्मना निवासस्तु, विवितात्वंव निश्चलः . -अनात्मदर्शी साधक गाँव या अरण्य में रहता है, किन्तु प्रात्मदर्शी साधक का वास्तविक निवास निश्चल विशुद्ध आत्मा में रहता है। 'समा तिणि उबाहिमा'-यह पद महत्त्वपूर्ण है / वृत्तिकार ने याम के तीन प्रर्थ किए हैं(१) तीन पाम-महाव्रत विशेष, (2) ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वे तीन याम / 13) मुनि धर्म-योग्य तीन अवस्थाएँ--पहली पाठ वर्ष से तीस वर्षे तक, दूसरी 31 से 60 तक और तीसरी---उससे ग्रागे को। ये तीन अवस्थाएँ 'त्रियाम' हैं।' स्थानांग सूत्र में इन्हें प्रथम, मध्यम और अन्तिम नाम से कहा गया है / / अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह ये तीन महावत तीन याम हैं, इन्हें पातंजल योगदर्शन में 'यम' कहा है / भगवान् पाश्र्वनाथ के शासन में चार महाव्रतों को 'चातुर्याम' कहा जाता था। यहाँ अचौर्य महावत को सत्य में तथा ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महाव्रत में समाविष्ट कर लिया है।' . मनुस्मृति और महाभारत मादि ग्रन्थों में एक प्रहर को याम कहते हैं, जो दिन का और रात्रि का चतुर्थ भाग होता है / दिन और रात्रि के कुल पाठ याम होते हैं। संसार-भ्रमणादि का जिनसे उपरम होता है, उन ज्ञानादि रत्नत्रय को भी त्रिवाम कहा गया है / 'अणियाणा' शब्द का यहाँ अर्थ है-निदान-रहित / कर्मबन्ध का निदान-प्रादि कारण राग-द्वष हैं। उनसे वे (उपशान्त मुनि) मुक्त हो जाते हैं। दण्डसमारंभ-विमोक्ष 203, उड्ढे अतिरियं दिसासु सव्वतो सन्चायति च णं पाडियवक जीधेहि कम्मसमारंभे णं / 1. (क) साचा० शीला० टीका पत्रांक 268 / (ख) 'ण मुणो रणवासण-उत्तरा० 25531 / 2. समाधि शतक 73 / 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 2683 4 . स्थानांग स्था० 3 / 5. प्राचार्य समन्तभद्र ने अल्पकालिक व्रत को नियम और पाजीवन पालने योग्य प्रहिंसादि को यम कहा है-निमयः परिमितकालो यावज्जीव यमो प्रियते / 6. आघा० शीला टीका पत्रांक 268 / 7. प्राचा० श्रीला. टीका पत्रांक 258 / 8. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 268 / (ख) 'निदानस्वादि कारणात्---अमरकोष / 9. 'पाडिएक्क' के बदले पाठ मिलते हैं-पडिएक्क, पाडेवक, परिक्कं / चूर्णिकार ने पाडियमक' पाठ मानकर उसकी व्याख्या यों की है- 'पत्ता पत्त यं समत्त कायेसु दंड प्रारभते इति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org