________________ ... नाचान सूत्र-प्रथम अतस्कन्द (उस धर्म के) तीन याम 1. प्राणातिपात-विरमण 2. मृषावाद-विरमण, 3. अदत्तादान विरमण रूप तीन महाव्रत या तीन क्योविशेष (अथवा सम्यकदर्शनादि तीन रत्न) कहे गए हैं, उन (तीनों यामों) में ये पावं सम्बोधि पाकर उस त्रियाम रूप धर्म का आचरण करने के लिए सम्यक् प्रकार से (मुनि दीक्षा हेतु) उत्थित होते हैं; जो (क्रोधादि को दूर करके) शान्त हो गए हैं। वे (पापकर्मों के) निदान (मूल कारण भूत राग-द्वेष के बन्धन) से विमुक्त कहे गए हैं। विवेचन असमनोज्ञ साधुओं के एकान्तवाद के चक्कर में अनेकान्तवादी एवं शास्त्रज्ञ सविहित साधु इसलिए न फंसे कि उनका धर्म (दर्शन) न तो सम्यकरूप से युक्ति, हेतु, तर्क प्रादि द्वारा कथित ही है और न ही सम्यक् प्रकार से प्ररूपित है।" . भगवान महावीर ने अनेकान्तरूप सम्यगवाद का प्रतिपादन किया है। जो अन्यदर्शनी एकान्तवादी साधक सरल हो, जिज्ञासु हो, तत्व समझना चाहता हो, उसे शान्ति, धैर्य और यक्ति से समझाए, जिससे असत्य एवं मिथ्यात्व से विमोक्ष हो। यदि असमनोज्ञ साधु जिज्ञासु व सरल न हो, वक्र हो, वितण्डावादी हो,' वचन-युद्ध करने पर उतारू हो अथवा द्वेष और ईष्यांवश लोगों में जैन साधुओं को वदनाम करता हो, वाद-विवाद और झगड़ा करने के लिए उद्यत हो तो शास्त्रकार स्वयं कहते हैं-'अदुवा गुली वयोगोयरस्स' अर्थात्--ऐसी स्थिति में मुनि वाणी-विषयक मुषित रखे। इस वाक्य के दो अर्थ फलित होते हैं (1) वह मुनि अपनी (सत्यमयी) वाणी की सुरक्षा करे यानी भाषासमितिपूर्वक वस्तु का यथारूप कहे, (2) वाग्गुप्ति करे-बिलकुल मौन रखे।४ सूत्र 202 के उत्तरार्ध में धर्म के विषय में विवाद और मूढ़ता से विमुक्ति की चर्चा की गयी है। उस युग में कुछ लोग एकान्ततः ऐसा मानते और कहते थे--गांव, नगर आदि जनसमह मैं रहकर ही साधु-धर्म की साधना हो सकती है / अरण्य में एकान्त में रहकर साधु को परीषह सहने का अवसर ही कम पाएगा, आएगा तो वह विचलित हो जाएगा। एकान्त में ही तो पाप पनपता है / इसके विपरीत कुछ साधक यह कहते थे कि अरण्यवास में ही साधुधर्म की सम्यक् साधना की जा सकती है, अरण्य में वनवासी बनकर कंद-मूल-फलादि खाकर ही सपस्या की जा सकती है, बस्ती में रहने से मोह पैदा होता है, इन दोनों एकान्तवादों का प्रतिबाद करते हुए शास्त्रकार कहते हैं। 'लेव गामे, व रम्'---धर्म न तो ग्राम में रहने से होता है, न अरण्य में आरण्यक बन कर रहने से / धर्म का आधार ग्राम-अरण्यादि नहीं हैं, उसका अाधार आत्मा है, आत्मा के 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 268 / 2. कहा भी है-'राग-दोसकरो वादो। 2. प्राचारांग; प्राचार्य प्रारमारामजी म. पृ. 551 / / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 268 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org