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________________ 15. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध - 151. इहमेगेसि एगचरिया भवति / से बहुकोहे बहुमाणे बहुमाए' बहुलोमे बहुरते. महगडे बहसढे बहसंकप्पे मासषसक्की पलिओछपणे उठितवावं पक्षमागे, 'मा मे केइ अदक्खु' मण्माण-पमावदोसेणं / सततं मूढे षम्म गाभिजाणति / अट्टा पया मागव' ! कम्मकोविया, मेमणबरता अविन्जाए पलिमोक्खमाहु, आवटें अणुपरियति त्ति बेमि / पढमो उद्देसओ समतो॥ 150. इस लोक में जितने भी मनुष्य प्रारम्भ जीवी (हिंसादि पापकर्म करके जीते) हैं, वे इन्हीं (विषयासक्तियों-काम की कामनाओं के कारण आरम्भजीवी हैं / अज्ञानी साधक इस संयमी (साधु) जीवन में भी विषय-पिपासा से छटपटाता हुआ (कामाग्नि प्रदीप्त होने के कारण) अशरण (सावद्य प्रवृत्ति) को ही शरण मानकर पापकर्मों में रमण करता है। 151. इस संसार के कुछ साधक (विषय-कषाय के कारण) अकेले विचरण करते हैं। यदि वह साधक अत्यन्त क्रोधी है, अतीव अभिमानी है, अत्यन्त मायी (कपटी) है, अति लोभी है, भोगों में प्रत्यासक्त है, नट की तरह बहुरूपिया है, अनेक प्रकार की शठता-प्रवंचना करता है, अनेक प्रकार के संकल्प करता है, हिंसादि आस्रवों में आसक्त रहता है, कर्मरूपी पलीते से लिपटा हुआ (कर्मों में लिप्त) है, 'मैं भी साघु हूँ, धर्माचरण के लिए उद्यत हुअा हूँ, इस प्रकार से उत्थितवाद बोलता (डींगें 1. 'बहुमाए' के बदले चूर्णि में पाठ है--'बहुमायो', अर्थ किया गया है- कल्कतपसा च बहुमायो मिथ्या या दम्भपूर्ण तपस्या के कारण अत्यन्त कपटी, दम्भी या ढोंगी। 2. 'बहुरते' का अर्थ चणि में किया गया है 'बहुरतो उचिणाति कम्मरयं'--बहुत से पाप कर्म रूप रज का संचय करता है।" शीलांकाचार्य ने अर्थ किया है-बहुरजाः बहुपापो, बहुषु वाऽऽरम्भादिषु रतो बहरतः / प्रति-बहत पाप करने वाला, जो बहत-से प्रारम्भादि पापों में रत रहता है, वह बहुरत है। 3. 'मासवसक्को' का अर्थ चूणि में यों है—आसवेसु विसु (स) तो आसव (स) की / पासव पान करके अधिकतर सोया रहता है, या आश्रवों में आसक्त रहता है। 'अहवा आसवे अणसंचरसि'--या आस्रवों में ही विचरण करता है। 'पलिओछष्णे' में 'पलिअ' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-"प्रलीयते भव येन यच्च भूत्वा प्रलोयते, प्रलीयमुच्यते कर्म भृशं लीनं यदात्मनि'--जिससे जीव संसार में विशेष लीन होता हैं; जो उत्पन्न होकर लीन हो जाता है, उसे प्रलीय कहते हैं, वह है कर्म, जो आत्मा में अत्यन्त लीन हो जाता है। 5. 'मणुयवच्चा माणवा तेसि आमंत्रणं' --जो मनुज (मनुष्य) के अपत्य हैं, वे मानव हैं, यहाँ नानव शब्द का सम्बोधन में बहुवचन का रूप है / / 6. चूणि में 'कम्मअकोविता पाठ है, अर्थ है--कहं कम्म बज्झति मुच्चति वा कर्म कोषिद (कर्म-पंडित उसे कहते हैं, जो यह भलीभांति जानता है कि कर्म कैसे बंधते हैं, कैसे छूटते हैं ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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