________________ 16 प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 334 (किविण) का अर्थ उत्तराध्ययन सूत्र में पिन्डोलक किया है, जो परदत्तोपजीवि पर-दत्त आहार से जीवन-निर्वाह करने वाला हो।' 'समाररूम' का अर्थ है-समारम्भ करके / मध्य के ग्रहण से आदि और अन्त का ग्रहण हो जाता है, वृत्तिकार ने इस न्याय से आदि और अन्त के पद-संरम्भ और आरम्भ का भी ग्रहण करना सूचित किया है। ये तीनों ही हिंसा के क्रम हैं—संरम्भ में संकल्प होता है, समारम्भ में सामग्री एकत्र की जाती है, जीवों को परिताप दिया जाता है और आरम्भ में जीव का वध आदि किया जाता है। ___ 'समुद्दिस्स' कीयं आदि पदों के अर्थ-किसी एक या अनेक सार्मिक साधु या साध्वी को उद्देश्य करके बनाया गया आहार समुद्दिष्ट है, कोय=खरीदा हुआ, पामिच्च =उधार लिया हुआ, अच्छिज्ज =बलात् छीना हुआ, अणिसळे=उसके स्वामी की अनुमति लिए बिना, अमिहडं घर से साधु-स्थान पर लाया हुआ, अत्तट्टियं= अपने द्वारा अधिकृत ! नित्यानपिण्डादि ग्रहण-निषेध ___333. से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलं पिंडवायपडियाए पविसित्तु कामे से ज्जाई पुण कुलाइं जाणेज्जा-इमेसु खलु कुलेसु णितिए पिंडे दिज्जति, णितिए अग्गपिंडे दिज्जति,णितिए भाए' दिज्जति, णितिए अवड्ढभाए दिज्जति, तहप्पगाराइं कुलाई णितियाई णितिउमाणाई णो भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज्ज का णिक्खमेज्ज वा। 333. गृहस्थ के घर में आहार-प्राप्ति की अपेक्षा से प्रवेश करने के इच्छुक साधु या साध्वी ऐसे कुलों (घरों) को जान लें कि इन कुलों में नित्यपिण्ड (आहार) दिया जाता है, नित्य अग्रपिण्ड दिया जाता है, प्रतिदिन भात (आधा भाग) दिया जाता है, प्रतिदिन उपार्द्ध भाग (चौथा हिस्सा) दिया जाता है। इस प्रकार के कुल, जो नित्य दान देते हैं, जिनमें प्रतिदिन केलासमवणा ए ए गुज्झगा आगया महि / चरति जक्खरूवेण पूयापूया हिताहिता // -ये कैलाश पर्वत पर रहने वाले यक्ष हैं। भूमि पर यक्ष के रूप में विचरण करते हैं / -स्थानांग ५/सू० 200 वृत्ति / 1. (क) आचा० टीका पत्र 325 / (ख) दशव० हारि० वृत्ति अ० 5 / 1151, 5 / 2 / 10 / (म) स्थानांग स्था० 5 पत्र 200 (घ) पिंडोलए व दुस्सीले-उत्त० 5 / 22 2. आचा० टीका पत्र 325 / 3. आचा० टीका पत्र 325 / 4. 'अग्गपिण्डे' के स्थान पर 'अग्गपिण्डो' शब्द मानकर चर्णिकार अर्थ करते हैं-'अम्गपिण्डो अग्गभिक्खा' अर्थात् अग्रपिण्ड हैं-सर्वप्रथम अलग निकाल कर भिक्षाचरों के लिए रखी हुई भिक्षा / 5. 'भाए दिज्जति, णितिए अबढमाए दिज्जति शब्दों की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की हैं "भाओभत्तट्ठो, अबढभातो अद्धभत्तट्टो, तस्सद्धं उवद्धभातो।" भात शब्द का अर्थ है-भक्तार्थ यानी भोजन योग्य पदार्थ अपाधंभात का अर्थ है-अर्द्धभक्तार्थ यानी उसका आधा भाग उपाद्ध भात (भक्त) होता हैं। 6. णितिउमाणाई के स्थान पर कहीं नियोमाणाई एवं कहीं निइउमाणाई पाठ मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org