________________ // वीआ चूला // अट्ठमं अज्झयणं 'ठाणसत्तिक्कयं' स्थान-सप्तिका : अष्टम अध्ययन : अण्डादि युक्त-स्थान ग्रहण-निषेध 637. से भिक्खू वा 2 अभिकखेति' ठाणं ठाइत्तए / से अणुपविसेज्जा गामं वा नगर वा जाव' संणिवेसं वा / से अणुपविसित्ता गाम वा जाव संणिवेसं वा से ज्जं पुण ठाणं जाणेज्जा सअंडं जाव मक्कडासंताणयं, तं तहप्पगारं ठाणं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा / एवं सेज्जागमेण नेयव्वं जाव उदयपसूयाई ति। 637. साधु या साध्वी यदि किसी स्थान में ठहरना चाहे तो वह पहले ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश में पहुंचे। वहां पहुंच कर वह जिस स्थान को जाने कि यह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उस प्रकार के स्थान को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। इसीप्रकार इस आगे का यहाँ से उदकप्रसूत कंदादि तक का स्थानैषणा सम्बन्धी वर्णन शय्यैषणा अध्ययन में निरूपित वर्णन के समान जान लेना चाहिए। विवेचन --कैसे स्थान में न ठहरे, कैसे में ठहरे ?–प्रस्तुत सूत्र में शय्यैषणा अध्ययन की तरह स्थान सम्बन्धी गवेषणा में विवेक बताया गया है। शय्या के बदले यहाँ स्थान समझना चाहिए। एक सूत्र तो यहाँ दे दिया है, शेष सूत्रों का रूप संक्षेप में इस प्रकार समझ लेना चाहिए-... (1) अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त स्थान न हो तो उसमें ठहरे / (2) एक साधार्मिक यावत् बहुत-सी सार्मिणियों के उद्देश्य से समारम्भपूर्वक निर्मित, क्रीत, पामित्य आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभिहत स्थान पुरुषान्तरकृत हो या अपुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो अथवा अनासेवित, उसमें न ठहरे / 1. 'अभिकखेति' के बदले 'अभिकं खति', 'अभिकखेज्जा' पाठान्तर है, अर्थ एक-सा है। 2. यहाँ 'जाव' शब्द सु० 224 के अनुसार 'गामं वा' से 'संणिवेसं वा' तक के पाठ का सूचक है। 3. यहाँ 'जाव' शब्द सू० 324 के अनसार 'सअंड' से 'मक्कडासंताणयं' तक के पाठ का सूचक है। 4. यहाँ 'जाव' शब्द से शय्याऽध्ययन के सू० 412 से 17 तक उदकपमताणि कंदाणि.......चेतेज्जा ' तक का समग्र वर्णन समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org