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________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 621-32 अपना स्थान साधुओं को निवास के लिए देने में उत्साह न रहेगा; (3) साधुओं द्वारा अधिक क्षेत्र रोक लेने पर गृहस्थ को अपने अन्य कार्य करने में दिक्कतें होंगी और (4) इससे साधुओं के प्रति उपर्युक्त कारणों से अश्रद्धा पैदा हो जाएगी। स्थान रूप अवग्रह की अनुज्ञा लेते समय काल और क्षेत्र की सीमा बांधना अनिवार्य बताया है और अवग्रहदाता को पूर्ण आश्वस्त एवं विश्वस्त करने हेतु साधु को स्वयं वचनबद्ध होना पड़ता है / हां, यदि अवग्रहदाता उदारतापूर्वक यह कह दे कि आप जब तक और जितने क्षेत्र में रहना चाहें. खुशी से रह सकते हैं, तब साधु अपनी कल्पमर्यादा का विवेक करके रहे। अवग्रह-गहीत स्थान में निवास और कर्तव्य - प्रस्तुत सूत्र में से स्थान के विषय में कर्तव्य-निर्देश किया है, जहाँ पहले से शाक्य भिक्षु आदि श्रमण या ब्राह्मण अथवा गृहस्थ ठहरे हुए हैं। ऐसी स्थिति में साधु उनके सामान को न तो बाहर फेंके और न ही एक कमरे से निकाल कर दूसरे में रखे; अगर वे सोये हों या आराम कर रहे हों तो हल्ला गुल्ला करके उन्हें न उठाए, और न ऐसा कोई व्यवहार करे जिससे उन्हें कष्ट हो या उसके प्रति अप्रीति हो। यह तो सामान्य नैतिक कर्तव्य है। इसमे भी आगे बढ़कर साधु को अपने क्षमा, मैत्री, अहिंसा, मुदिता (प्रमोद), मृदुता, ऋजुता, संयम, तप, त्याग आदि धर्मों का अपने व्यवहार से परिचय देना चाहिए। यदि जरा-सी भी कोई अनुचित बात या कठोर व्यवहार अथवा अनुदारता अपने या अपने साथियों से हो गई हो तो उन पूर्व निवासी व्यक्तियों से उसके लिए क्षमा मांगनी चाहिए, वाणी में मृदुता और व्यवहार में सरलता इन दोनों श्रमण-गुणों का त्याग तो कथमपि नहीं करना चाहिए / प्रथम तो साधु को ऐसी सार्वजनिक सर्वजन संसक्त धर्मशाला आदि में अन्य एकान्त एवं सर्वजन विविक्त स्थान के रहते ठहरना ही नहीं चाहिए, यदि वैसा स्थान न मिले और कारणवश ऐसे स्थान में ठहरना पड़े तो अपने नैतिक कर्तव्यों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।' इसके साथ कुछ नैतिक कर्तव्य और भी है जिनका स्पष्टतः उल्लेख तो मूलपाठ में नहीं है, किन्तु णो तेसि किचि वि अप्पत्तियं पडिणीयं करेज्जा' पाठ से ध्वनित अवश्य होते हैं वे इस प्रकार हैं -(1) आवासीय स्थान को गंदा न करे, न ही कूडा-कर्कट जहां तहां डाले (2) मल-मूत्र आदि के परिष्ठापन में भी अत्यन्त विवेक से काम ले, (3) मकान या स्वच्छ रखे, (4) मकान को तोड़े-फोडे नहीं, (5) जोर-जोर चिल्ला कर, या आराम के समय शोर मचा कर शान्ति भंग न करे / (6) अन्य धर्म-सम्प्रदाय के आगन्तुकों के साथ भी साधु का व्यवहार उदार एवं मृदु हो / यद्यपि इन नैतिक कर्तव्यों का समावेश साधु के द्वारा आचरणीय पांच समिति, तीन गुप्ति एवं अहिंसा महाव्रत में हो जाता है तथापि साधु को ....... - ....1. (क) आचारांग वृत्ति एवं मूलपाठ 804-405 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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