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________________ 262 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध छोटे-छोटे कोमल टुकड़े अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से तो रहित हैं, किन्तु तिरछे कटे हुए नहीं हैं, तो उन्हें पूर्ववत् जानकर ग्रहण न करे, यदि वह यह जान ले कि वे इक्षु-अवयव अंडों यावत् मकड़ी के जालों मे रहित हैं तथा तिरछे कटे हुए भी हैं तो उन्हें प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर वह ग्रहण कर सकता है / 632. यदि साधु या साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन के वन (खेत) पर ठहरना चाहें तो पूर्वोक्त विधि में उसके स्वामी या नियुक्त अधिकारी से क्षेत्र-काल की सोमा खोलकर अवग्रहानुज्ञा ग्रहण करके रहे / अवग्रह ग्रहण करके वहाँ रहते हुए किसी कारणवश लहसुन खाना चाहे तो पूर्व सूत्रवत् दो बातें-अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त तथा तिरछे न कटे हुए हों तो न ले, यदि ये दोनों बातें न हों, और वह तिरछा कटा हुआ हो तो पूर्वोक्त विधिवत् ग्रहण कर सकता है। इसके तीनों आलापक पूर्वसूत्रवत् समझ लेने चाहिए। विशेष इतना ही है कि यहाँ 'लहसुन' का प्रकरण है। यदि साधु या साध्वी (किसी कारणवश) लहसुन, लहसुन का कंद, लहसुन की छाल या छिलका या रस अथवा लहसुन के गर्भ का आवरण (लहसुन का बीज) खाना-पीना चाहे और उसे ज्ञात हो जाए कि यह लहसुन यावत् लहसुन का बीज अंडों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो पूर्ववत् जानकर ग्रह्ण न करे, यदि वह अंडों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, किन्तु तिरछा कटा हुआ नहीं तो भी उसे न ले, यदि तिरछा कटा हुआ हो तो पूर्ववत् प्रासुक एवं एषणीय जानकर मिलने पर ले सकता है। विवेचन-विभिन्न अवग्रहों को ग्रहण-विधि और कर्तव्य --सूत्र 621 से 632 तक 12 सूत्रों में अवग्रह-ग्रहण के विभिन्न मुद्दों पर विविध पहलुओं से विचार प्रस्तुत किये गए हैं। इनमें विशेष रूप से 4 बातों का निर्देश है-- (1) किसी स्थान रूप अवग्रह की अनुज्ञा लेने की विधि, (2) अवग्रह-ग्रहण करने के बाद वहां निवास करते समय साधु का कर्तव्य, (3) आम्रवन, इक्षवन एवं लहसुन के बन में अवग्रह-ग्रहण करके ठहरने पर ये तीनों वस्तुएं यदि अप्रासुक और अनेषणीय हों, तो सेबन करने का निषेध और (4) यदि ये वस्तुएं प्रासुक और एषणीय हो, और उस-उस क्षेत्र के स्वामी या अधिकारी मे यथाविधि प्राप्त हों तो साधु के लिए ग्रहण करने का विधान / ' आवासस्थानरूप अवग्रह-ग्रहण में सीमावद्धता क्यों ?--अगर स्थान रूप अवग्रह-ग्रहण में इतना स्पष्टीकरण अवग्रहदाता ने न किया जाए तो मुख्य रूप गे चार खतरों की सम्भावना है--(१) साधु वहाँ सदा के लिए या चिरकाल तक जम जाएँगे, ऐसी स्थिति में कदाचित् शय्यातर रुष्ट होकर अपमानित करके साधुओं को वहां से निकाल दे, (2) भविष्य में कभी 1. आचारांग वृत्ति एवं मूलपाठ पत्रांक 404-405 के आधार पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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