________________ 14 आचारांग सूत्र--द्वितीय अतस्कन्ध इनका विशेष ध्यान रखना वर्तमानयुग में अत्यन्त आवश्यक है, इसलिए यहाँ सूत्र में संक्षेप में उल्लेख कर दिया है।' आम्रवन निवास आदि से सम्बन्धित सूत्र-यपि तीन सूत्रों में इन तीनों वनों से सम्बन्धित अवग्रह-विवेक का समावेश हो जाता, तथापि विशेष स्पष्ट करने की दृष्टि से 10 सूत्रों में इनका वर्णन किया है। इन तीनों वनों (क्षेत्र) में निवास करने के सूत्र प्रणयन का रहस्य वृत्तिकार एवं चूर्णिकार दोनों ने संक्षेप में खोला है। चूर्णिकार के अनुसार आम्रवन में दारुक-दोष या अस्थिदोष नहीं होते, इसलिए किसी रोगादि कारणवश औषध के कार्य हेतु (वैद्यादि के निर्देश पर) श्रद्धालु श्रावक से गवेषणा करने पर वह प्रार्थना करता है, भगवन् ! मेरे आम्रवन में निवास करें। किसी वस्तु के गंध से भी व्याधि नष्ट होती है। जैसे रसोई की गंध से ग्लान को तृप्ति-सी होने लगती है, हर्डे की गंध से कई व्यक्तियों को विरेचन होने लगता है, स्वर्ण से व्याकुलता दूर होती है / ... "व्याधिनिवारण के निमित्त इक्षुवन में निवास करना उचित है / ... "लहशुन के वन में भी व्याधि के कारण रहा जा सकता है, इसलिए लहशुन का विकल्प भी प्रतिपादित किया गया है / वृत्तिकार का कथन है-कारण उपस्थित होने पर कोई साधु आम खाना चाहे........... प्रासुक आम कारण होने पर ले सकता है। यहां आम्रादि सूत्रों के अवकाश के सम्बन्ध में निशीथ सूत्र के 16 वें उद्देशक से जान लेना चाहिए। __ 'अंबभित्तग' आदि पदों का अर्थ---भित्तगं (भत्तगं)=आधाभाग या चतुर्थभाग पेसी = चौथाई भाग आम की लंबी फाडी चोयगं त्वचा या छाल (किसी के मत से) मोयगं - अंदर का गर्भ या गिरी सलागं = नखादि से अक्षुण्ण बाहर की छाल, अथवा रस / डालगं=छोटे-छोटे मुलायम टुकड़े अथवा डलगं (रूपान्तर) =जो लम्बे और सम न हों, ऐसे चक्रिकाकार खण्ड अथवा आधा भाग / अंतरुच्छुयं = पर्वरहित या पर्व का मध्य-भाग खंड == पर्व सहित भाग; गंडिका = गंडेरी 4 1. (क) दशवै० अ०८/४८ गा० 'अपसिय जेण सिया आसु कुष्येज्ज वा परो।" (ख) आचारांग मूलपाठ, वृत्ति पत्रांक 408-405 2. आचारांग चणि मू. पा. ठि. प्र. 023-24 में—'अंबवणे ण बदति, दारुय अटिठमादि दोसा, कारणे ओसहकज्जे सड्ढो मग्गिओ भणति--भगवं अंबवणे हाह / कस्सवि गंधेण चेव गस्सति वाही, जहा रसवईए गिलाणो, जहा वा हरीडईए गंधेण विरिच्चनि, हेमयाए कलं / ....."वाधिणिमित्त उक्खुबणेवि वाहिकारणे लसुणं विभासियव्वं / " 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक ८०५......."तत्रस्थश्च सति कारणे आन भोक्तुमिच्छेत् / ....""व्यवच्छिन्नं वत्प्रासुकं कारणे सति गम्हीयात ।....."आम्रादिस त्राणामवकाशो तिशीथषोडशकादवगन्तव्यः / " 4. (क) आचारांग चूणि मू. पा. टि. पृ. 23 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 405 (ग) निशीथ चूणि उद्दे० 15, पृ. 481, 88. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org