SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 667
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 214 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध (6) स्पष्ट, किन्तु प्राणघातक, मर्मस्पर्शी, आघात-जनक, (7) व्यर्थक, (दोहरे अर्थ वाली) (8) निरपेक्ष व एकान्त कथन / ' 'निट्ठाभासो' आदि शब्दों की व्याख्या--निहाभासो—निश्चित करने के बाद भाषण करने वाला, स्पष्ट-भाषी (संदिग्ध, अस्पष्ट, द्वयर्थक, केवल श्रुत या अनुमित भाषा प्रयोग नहीं करने वाला) / अणुवीय पहले बुद्धि से निरीक्षण-परीक्षण करके छानबीन करके / अज्झत्थवयण = आध्यात्मिक कथन, जो शास्त्रीय प्रमाण, अनुभव, युक्ति या प्रत्यक्ष से निश्चित हो, अथवा आत्मा-हृदय में स्पष्ट समुद्भूत, स्फुरित या अन्तःकरण प्रेरित वचन / उवणीयवयणं प्रशंसात्मक वचन, जैसे—यह रूपवान है। अवणीयवयणं-अप्रशंसात्मक वचन, जैसे—यह रूपहीन है, उवणीतअवणीतवयणं = किसी का कोई गुण प्रशंसनीय है, कोई अवगुण निन्द्य है, उसके विषय में कथन करना, जैसे—यह व्यक्ति रूपवान् है किन्तु चरित्रहीन है / अवणीत-उपणोतवयणं-किसी के अप्रशस्तगुण के साथ प्रशस्तगुण का कथन करना जैसे-यह कुरूप है, किन्तु है सदाचारी। ___ इत्थीवेस आदि पदों की व्याख्या-चूर्णिकार ने इत्थीवेस, पुणपुसगवेसं पाठ मानकर इस प्रकार व्याख्या की है-कोई स्त्री के वेष में जा रही हो तो उसे देखकर यों न कहे कि यह पुरुष जा रहा है। इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक के विषय में समझ लेना चाहिए।' दशवकालिक 7 / 15 में भी इसी प्रकार का उल्लेख है कि सत्य दीखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर कथन करना भी असत्य-दोष है। इस पर दोनों चूणियों तथा हारिभद्रीय टीका में काफी चर्चा की गई है। चूर्णिकार का मत है कि पुरुषवेषधारी स्त्री को देखकर यह कहना कि पुरुष गा रहा है, नाच रहा है, जा रहा है-स-दोष है। जब कि टीकाकार आचार्य हरिभद्र का मत है—पुरुषवेषधारी स्त्री को स्त्री कहना स-दोष है। इसका आशय यह लगता है कि जब तक उस विषय में संदेह हो, उसके स्त्री या पुरुष होने का निश्चय न हो, तब तक उसे निश्चित रूप में स्त्री या पुरुष; नपुंसक नहीं कहना चाहिए यह शंकितभाषा की कोटि में आ जाती है। किंतु रूप-सत्य भी सत्यभाषा का एक प्रकार माना गया है, जिसके अनुसार वर्तमान रूप में जो है, उसे उसी नाम से पुकारना 'रूपसत्य' सत्य-भाषा है। इस समग्न चर्चा का सार यह लगता है कि पुरुषवेषधारी स्त्री को पुरुष न 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्र 386 (ख) दशवे० अ०७ गा० 5-11 2. (अ) आचारांग वृत्ति पत्रांक 386 (आ) आचारांग चूणि मू० पा० पृ० 186 3. आचारांग चूणि मू. पा. पृ. 160 4. देखें (क) अगस्यसिह चूणि पृष्ठ 165 (ख) जिनदासचूर्णि, पृष्ठ 246 (ग) हारिभद्रीय टीका पत्र २१४-दसवेआलियं पृष्ठ 346 5. पन्नवणा पद 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy