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________________ 29 प्रथम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 46-49 मैं चिन्तन कर, सम्यक् प्रकार देखकर कहता हूँ. प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण (शान्ति और सुख) चाहता है / सब प्राणियों, सब भूतों, सब जीवों और सब सत्त्वों को असाता (वेदना) और अपरिनिर्वाण (अशान्ति) ये महाभयंकर और दुःखदायी हैं। मैं ऐसा कहता हूँ। ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में, सब अोर से भयभीत/त्रस्त रहते हैं। तू देख, विषय-मुखाभिलाषी अातुर मनुष्य स्थान-स्थान पर इन जीवों को परिताप देते रहते हैं। उसकायिक प्राणी पृथक-पृथक् शरीरों में पाश्रित रहते हैं। विवेचन इस सूत्र में त्रसकायिक जीवों के विषय में कथन है / आगमों में संसारी जीवों के दो भेद बताये गये हैं स्थावर और त्रस / जो दुख से अपनी रक्षा और सुख का आस्वाद करने के लिए हलन-चलन करने की क्षमता रखता हो, वह 'स' जीव है / इसके विपरीत स्थिर रहने वाला 'स्थावर' / द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी 'त्रम' होते हैं। एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय वाले स्थावर / उत्पत्ति-स्थान की दृष्टि से त्रस जीवों के पाठ भेद किये गये हैं--- 1. अंडज–अंडों से उत्पन्न होने वाले-मयूर, कबूतर, हंस आदि / 2. पोतज–पोत अर्थात् चर्ममय थैली / पोत से उत्पन्न होने वाले पोतज-जैसे हाथी, बल्गुली आदि। 3. जरायुज-जरायु का अर्थ है गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली, जो जन्म के समय शिशु को प्रावृत किये रहती है / इसे 'जेर' भी कहते हैं। जरायु के साथ उत्पन्न होने वाले हैं जैसे-- गाय, भैस आदि। 4. सज-छाछ, दही आदि रस विकृत होने पर इनमें जो कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं वे 'ग्सज' कहे जाते हैं। 5. संस्वेदज-पसीने से उत्पन्न होने वाले / जैसे-जू, लीख आदि / 6. सम्भूच्छिम-- बाहरी वातावरण के संयोग से उत्पन्न होने वाले, जैसे-मक्खी, मच्छर, चींटी, भ्रमर आदि / 7. उद्भिज्ज-भूमि को फोड़कर निकलने वाले, जैसे-टीड़, पतंगे आदि / 8. औपपातिक-- 'उपपात' का शाब्दिक अर्थ है सहसा घटने वाली घटना। आगम की दृष्टि से देवता शय्या में, नारक कुम्भी में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसलिए वे औपपातिक कहलाते हैं। ___ इन आठ प्रकार के जीवों में प्रथम तीन 'गर्भज' चौथे से सातवें भेद तक 'सम्मूर्छिम' और देव नार: औपपातिक हैं। ये 'सम्मूछेनज, गर्भज, उपपातज--- इन तीन भेदों में समाहित हो जाते हैं / तन्वार्थ सूत्र (2/32) में ये तीन भेद ही गिनाये हैं। इन जीवों को संस र कहने का अभिप्राय यह है कि-यह अष्टविध योनि-संग्रह ही जोवों के जन्म-मरण नथा गमनागमन का केन्द्र है। अतः इसे ही संसार समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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