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________________ आचारांग मूत्र प्रथम श्रुतस्कन्छ 46. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिष्णाता भवति / एत्थ सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति। 47. तं परिणाय मेहावी णेव सयं वणस्सतिसत्थं समारंभेज्जा, गेवणेहि वणस्सतिसत्थं समारंभावेज्जा, वऽण्णे वणस्सतिसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। 48. जस्सेते वसतिसस्थसमारंभा परिरणाया भवंति से हु मुणो परिणायकम्मे त्ति बेमि। / पंचमो उद्देसओ समत्तो।। 46. जो वनस्पतिकायिक जीवों पर यास्त्र का समारंभ करता है, वह उन प्रारंभों/प्रारंभजन्य कटुफलों से अनजान रहता है / (जानता हुअा भी अनजान है।) जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का प्रयोग नहीं करता, उसके लिए प्रारंभ परिज्ञात है। 47. यह जानकर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारंभ न करे, न दूसरों से समारंभ करवाए और न समारंभ करने वालों का अनुमोदन करे / 48. जिसको यह वनस्पति सम्बन्धी समारंभ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञातकर्मा (हिंसा-त्यागी) मुनि है। पंचम उद्देशक समाप्त / / छठ्ठो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक संसार-स्वरूप 49. से बेमि-संतिमे तसा पाणा, तं जहा--अंडया पोतया जराउया रसया संसेयया' सम्मच्छिमा उब्भिया उववातिया / एस संसारे त्ति पवुच्चति / मंदस्स अवियाणओ। . णिज्झाइत्ता पडिले हित्ता पत्त यं परिणिव्वाणं। सम्बेसि पागाणं सम्वेसि भूताणं सम्देसि जीवाणं सव्वेसि सत्ताणं अस्सातं अपरिणिव्याणं महन्भयं दुक्खं ति बेमि। .. तसंति फाणा पविसो दिसासु य / तत्य तत्थ पुढो पास आतुरा परितार्वति / संति पाणा पुढो सिया। 49. मैं कहता हूँ ये सब स प्राणो हैं, जैसे-अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, सस्वेदज, सम्मूच्छिम, उदभिज्ज और प्रौपपातिक। यह ( स जीवों का समन्वित क्षेत्र) संसार कहा जाता है। मंद तथा अज्ञानी जीव को यह संसार होता है। 1 पाठान्तर-संसेइमा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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