________________ 162 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध नहीं, (2) प्रेक्ष्या--जिसका पहले नामोल्लेख किया था, उसी को देखूगा, तब ग्रहण करूंगा, दूसरे को नहीं, (3) विद्यमाना--यदि उद्दिष्ट और दृष्ट संस्तारक शय्यातर के घर में मिलेगा तो ग्रहण करूगा, अन्य स्थान से लाकर उस पर शयन नहीं करूंगा, और (4) यथासंस्ततरूपायदि उपाश्रय में सहज रूप से रखा या बिछा हुआ पाट आदि संस्तारक मिलेगा तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं।" साधु चारों में से कोई भी एक प्रतिज्ञा ग्रहण कर सकता है।' ___इक्कड आदि पदों के अर्थ इक्कडं =इक्कड़ नामक तण विशेष, या इस घास से निर्मित चटाई आदि, कढिणं बांस, छाल आदि से बना हुआ कठोर तृण, या कढिणक नामक घास, कंधिम आदि का बिछाने का तृण, जंतुयं-जंतुक नामक घास, परगं-मुण्डक-पुष्पादि के गूंथने में काम आने वाला तृण, मोरगं मोर पिच्छ से निष्पन्न या मोरंगा नाम की तृण की जाति, तणगं सभी प्रकार के घास (तृण), कुसं-कुश या दर्भ, कुच्चगं कूर्चक, जिससे कूची आदि बनाई जाती है, उसका बना हुआ / वव्वगं पिप्पलक या वर्वक नामक तुण विशेष, पलालगं= धान का पराल। अहासंथडा की व्याख्या चूर्णिकार ने यों की है-अहासंथडा=यथासंस्तृत संस्तारक 1. [क] आचारांग वृत्ति पत्रांक 372 (ख) इन चारों प्रतिमाओं की व्याख्या चूणिकार ने इस प्रकार की है-- प्रथम और द्वितीय प्रतिमा की व्याख्या--"उढेि कताइ छिदित्त आणेज्ज तेण पेहा विसुद्धतरा, पेहा णाम पिक्खित्त 'एरिसगं देहि बितिया पडिमा।"-उद्दिष्टा में कदाचित् उस वस्तु को काट कर ले आए, इसलिए प्रेक्षा उससे विशुद्धतर है। प्रेक्षा कहते हैं-किसी संस्तारक योग्य वस्तु को देखकर 'मुझे ऐसी ही वस्तु दो'--यह दूसरी प्रतिमा है। तीसरी प्रतिमा की व्याख्या--."ततिया अधासमण्णागता णाम जति बाहि बसति बाहिं चेव इक्कडादि, णो अंतो साहीओ णो बेसणीओ आणेयव्य, अह अंतो वसति अंतो चेव, इक्कड़ादि वा पत्थि तो उक्कुडगणेसज्जिओ विहरेज्जा / " तीसरी 'अहासमण्णागता' यथासमत्वागता) प्रतिमा इस प्रकार है-यदि वसति (शय्या) गाँव से बाहर है तो इक्कड़ आदि घास बाहर ही मिलेगा तो लेगा, अंदर से बनाया हुआ या एषणीय घास नहीं लाएगा, या नहीं मंगाएगा / यदि उपाश्रय गाँव के अन्दर है तो वह इक्कड़ आदि अंदर से ही लेगा, बाहर से लाया हआ, एषणीय भी नहीं लेगा। यदि इक्कडादि घास अन्दर नहीं मिलता है तो वह उत्कटक आसन या पद्मासन आदि से बैठकर सारी रात बिताएगा। चौथी अहासंथडा प्रतिमा की व्याख्या--"तत्थत्या अहासंबडा पुढविसिला ओयट्टओ, पासाणसिला, कट्ठसिला वा / सिलाए-गहणा गरूयं, अहासंथडगहणा भूमीए लग्मगं चैव ।"-चौथी संस्तारक प्रतिमा यों है-जो जैसा संस्तारक है, वैसा ही स्वाभाविक रूप से रहे, यही यथासंस्तृत संस्तारकप्रतिमा का आशय है। जैसे पथ्वीशिला-मिट्टी की कठोर बनी हयी शिला, पाषाणशिला या काष्ठ की बनी हुयी शिला / यहाँ शिलापट के ग्रहण करने के कारण 'भारी' भी ग्राह्य है, तथा 'अहासंथड' पद के ग्रहण करने से जो संस्तारक भूमि से लगा हो, वह भी ग्राह्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org