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________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 456-57 161 की घास या बना हुआ संस्तारक देखकर गृहस्थ से नामोल्लेख पूर्वक कहे--आयुष्मान् सद्गृहस्थ (भाई), या बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारक (योग्य पदार्थों) में से अमुक संस्तारक (योग्य पदार्थ) को दोगे | दोगी? इस प्रकार के प्रासुक एवं निर्दोष संस्तारक की स्वयं याचना करे अथवा गृहस्थ ही बिना याचना किए दे तो साधु उसे ग्रहण करले। यह प्रथम प्रतिमा है। (2) इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा यह है- साधु या साध्वी गृहस्थ के मकान में रखे हुए संस्तारक को देखकर उसकी याचना करे कि हे आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! क्या तुम मुझे इन संस्तारकों में से किसी एक संस्तारक को दोगे | दोगी? इस प्रकार के निर्दोष एवं प्रासुक संस्तारक की स्वयं याचना करे, यदि दाता (गृहस्थ) बिना याचना किए ही दे तो प्रासुक एवं एषणीय जानकर उसे ग्रहण करे / यह द्वितीय प्रतिमा है।। (3) इसके अनन्तर तीसरी प्रतिमा यह है-वह साधु या साध्वी जिस उपाश्रय में रहना चाहता है, यदि उसी उपाश्रय में इक्कड यावत् पराल तक के संस्तारक विद्यमान हों तो गृहस्वामी की आज्ञा लेकर उस संस्तारक को प्राप्त करके वह साधना में संलग्न रहे। यदि उस उपाश्रय में संस्तारक न मिले तो बह उत्कटुक आसन, पद्मासन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे / यह तीसरी प्रतिमा है। (4) इसके बाद चौथी प्रतिमा यह है-वह साधु या साध्वी उपाश्रय में पहले से ही संस्तारक बिछा हुआ हो. जैसे कि वहां तृणशय्या, पत्थर की शिला, या लकड़ी का तख्त आदि बिछा हुआ रखा हो तो उस संस्तारक की गृहस्वामी से याचना करे, उसके प्राप्त होने पर वह उस पर शयन आदि क्रिया कर सकता है। यदि वहां कोई भी संस्तारक बिछा हुआ न मिले तो वह उत्कटुक आसन तथा पद्मासन आदि आसनों से बैठकर रात्रि व्यतीत करे / यह चौथी प्रतिमा है। 457. इन चारों प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा को धारण करके विचरण करने वाला साधु, अन्य प्रतिमाधारी साधुओं की निन्दा या अवहेलना करता हुआ यों न कहे-ये सब साधु मिथ्या रूप से प्रतिमा धारण किये हुए हैं, मैं ही अकेला सम्यक्रूप से प्रतिमा स्वीकार किये हुए हूँ। ये जो साधु भगवान् इन चार प्रतिमाओं में से किसी एक को स्वीकार करके विचरण करते हैं, और मैं जिस (एक) प्रतिमा को स्वीकार करके विचरण करता हूँ; ये सब जिनाज्ञा में उपस्थित हैं। इस प्रकार पारस्परिक समाधिपूर्वक विचरण करे। विवेचन--संस्तारक सम्बन्धी चार प्रतिज्ञाएं इस सूत्र के चार विभाग करके शास्त्रकार ने संस्तारक की चार प्रतिज्ञाए बताई हैं-(१) उद्दिष्टा, (2) प्रेक्ष्या, (3) विद्यमाना और (4) यथासंस्तृतरूपा। प्रतिज्ञा के चार रूप इस प्रकार बनते हैं--(१) उद्दिष्टा-फलक आदि में से जिस किसी एक संस्तारक का नामोल्लेख किया है, उसी को मिलने पर ग्रहण करूगा, दूसरे को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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