________________ अष्टम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 223-224 20 मुनि सरस आहार में या स्वाद में लोलुप और गृद्ध न हो। महामुनि स्वाद के लिए नहीं, अपितु संयमी जीवन-यापन करने के लिए भोजन करे।' ... गच्छाचारपइन्नर' में भी बताया है कि जैसे पहिये को बराबर गति में रखने के लिए तेल दिया जाता है, उसी प्रकार शरीर को संयम यात्रा के योग्य रखने के लिए. आहार करना चाहिए, किन्तु स्वाद के लिए, रूप के लिए, वर्ष (यश) के लिए या बल (दर्प) के लिए नहीं। . इसी अध्ययन में पहले के सूत्रों में प्राहार से सम्बद्ध गवेषणैषणा के 32 और ग्रहणेषणा के 10 यो 42 दोषों से रहित निर्दोष आहार लेने का निर्देश किया गया था। अब इस सूत्र में शास्त्रकार ने 'परि मरेगषणा' के पाँच दोषों-अंगार, धूम आदि) से बचकर आहार करने का संकेत किया है / अंगार आदि 5 दोषों के कारण तो राग-द्वेष-मोह आदि ही हैं। इन्हें मिटाए बिना स्वाद-विमोक्ष सिद्ध नहीं हो सकता / ' __इसीलिए चूणि मान्य पाठान्तर में स्पष्ट कर दिया गया है कि मनोज्ञ ग्रास को प्रादररुचिपूर्वक और अमनोन अरुचिकर को अनादर-अरुचिपूर्वक मुह में इधर-उधर न चलाए / इस प्रकार निगल जाए कि उस पदार्थ के स्वाद की अनुभूति मुंह के जिस भाग में कौर रखा है, उसी भाग को हो, दूसरे को नहीं। मूल में तो आहार के साथ राग-द्वेष, मोहादि का परित्याग करना ही अभीष्ट है। संलेखना एवं इंगितमरण 224. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति ‘से गिलामि च खलु अहं इमंसि समए इमं सरोरगं अणपुग्वेण परिवहित्तए' से आमुपुन्वेण आहारं संवट्टेज्जा, आपुष्वेण आहारं संक्ट्रेता कसाए पतणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिणिन्वुडच्चे अणुएनिसित्ता गामं वा णगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंबं वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा संणिवेसं वा गिगमं वा रायहाणि वा तमाई जाएज्जा, तणाई जाएता से समायाए एगंतमवक्कमिजा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिा . 1. अलोलो न से गिद्धो, जिम्भादतो अमुच्छिओ। न रसाए भुजिज्जा, जवणठाए महामुणी // - उत्तरा. अ. 31 गा.१७॥ 2. तंपिहबरसत्यं न य वणत्यं न चेव वप्पत्थ। जमभरवहणत्पं अस्खोवगं व वहणस्थं // -गच्छाचारपइन्ना गा० 56 / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 283 / . 4. प्राचारांग चूणि, प्राचा० मूल पाठ टिप्पण सूत्र 223 / 5. इसके बदले चूर्णिकार ने 'से अणुपुवोए आहारं सांवटित्ता...' पाठातर मानकर अर्ष किया है-- ___ गिलाणो प्रणुपुबीए..."माहारं सम्म संबट्टेइ, यदुक्तं भवति संखिवति, अपुदीते संबंहिता"" . अर्थात् —वह ग्लान भिक्षु क्रमशः प्राहार को सम्यक रूप से कम करता जाता है, क्रमश: पाहार को कम करके 6. इसके बदले चूरिण में 'अभिणिबुडप्पा' पाठ है, अर्थ होता है-शान्तात्मा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org