________________ पर-क्रिया सप्तक : त्रयोदश अध्ययन प्राथमिक आचारांग सूत्र (द्वि० श्र०) के इस अध्ययन का नाम 'पर-क्रिया सप्तक' है / * साधक जितना स्व-क्रिया करने में, अथवा स्वकीय आवश्यक शरीरादि सम्बन्धित क्रिया करने में स्वतन्त्र, स्वावलम्बी और स्वाश्रयी होता है, उतनी ही उसकी साधना तेजस्वी बनती है और शनैः-शनैः साधना की सीढ़ियां चढ़ता-चढ़ता एकदिन वह अक्रियक्रिया से रहित, निश्चल-निःस्पन्द शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है।' साधक जितना अधिक दूसरों का सहारा, दूसरों का मुंह ताकेगा, दूसरों से अपना कार्य कराने के लिए दीनता प्रकट करेग, वह उतना ही अधिक पराधीन, पराश्रयी, परमुखापेक्षी, दीन-हीन, मलिन बनता जाएगा। एकदिन वह पूर्ण रूपेण उन व्यक्तियों या वस्तुओं का दास बन जाएगा। इसी निकृष्ट अवस्था से साधक को हटाने और उत्कृष्टता के सोपान पर आरूढ़ करने हेतु पर-क्रिया का निषेध तन-वचन में ही नहीं, मन से भी किया गया है। साधु के लिए की जानेवाली इस प्रकार की परक्रिया को कर्म बन्धन की जननी कहा गया है। - 'पर' का अर्थ यहाँ साधु से इतर-गृहस्थ किया गया है। * वैसे 'पर' के नाम-स्थापना आदि 6 निक्षेप वृत्तिकार ने किये हैं, उनमें से यहाँ प्रसंगवश 'आदेश-पर' अर्थ भी ग्रहण किया जा सकता है / 'आदेश पर' का अर्थ होता है जो किसी क्रिया में नियुक्त किया जाता है, वह कर्मकर, भृत्य या अधीनस्थ व्यक्ति सम झना चाहिए। * 'पर' के द्वारा' साधु के शरीर, पैर, आँख, कान आदि अवयवों पर की जाने वाली परिकर्म-क्रिया या परिचर्या 'परक्रिया' कहलाती है। ऐसी पर-क्रिया कराना साधु के लिए मन, बचन, काया से निषिद्ध है। 1. (क) सवणे नाणे य विन्नाणे पच्चक्खाणे य संजमे / अणण्हए तवे चेव वादाणे अकिरिया सिद्धी / (ख) उत्तरा० अ० 26, बोल ३६-सहायपच्चक्खाणेणं भंते। 2. आचारांग मूलपाठ वृत्ति पत्रांक 436 भगवती सूत्र 2/5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org