________________ 42 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध मक्कडासंतागगा, बहवे तत्थ 'समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा उवागता उबागमिस्संति, अच्चाइण्णा वित्ती, गो पण्णस्स मिक्खमण-पवेसाए गो पण्णस्त वायण-पुच्छण-परियट्टणाऽगुप्पेह-धम्माणुयोगचिताए / से एवं गच्चा तहप्पगारं पुरेसंखोंड वा पच्छासंडि वा संखडि संखडिपडियाए गो अभिसंधारेज्ज गमणाए / से भिक्खू वा 2 जाब पबिटु समाणे से ज्जं पुण जाणेज्जा मसादियं वा जाव' संमेलं वा होरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा अपपामा जाव संताणगा, णो जत्य बहवे समण-माहण जाव उवागमिस्संति, अप्पाइण्णा वित्ती, पण्णस्स णिक्खमण-पवेसाए, पण्णस्स वायण-पुच्छण-परियट्टणा-Sणुप्पेह-धम्माणुयोगचिताए / सेवं गच्चा तहप्पगारं पुरेसंखड वा पच्छासंखडि वा संखडि संखडिपडियाए अभिसंधारेज्ज गमणाए / 348. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रवेश करते समय भिक्षु या भिक्षुणी यह जाने कि इस संखडि के प्रारम्भ में मांस पकाया जा रहा है या मत्स्य पकाया जा रहा है, अथवा संखडि के निमित्त मांस छीलकर सुखाया जा रहा है या मत्स्य छोलकर सुखाया जा रहा है ; विवाहोत्तर काल में नव-वधू के प्रवेश के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, या पितगृह में वधू के पुनः प्रवेश के उपलक्ष्य में भोज हो रहा है, या मतकसम्बन्धी भोज हो रहा है, अथवा परिजनों के सम्मानार्थ भोज (गोठ) हो रहा है। ऐसी संखडियों (भोजों) मे भिक्षाचरों को भोजन लाते हुए देखकर संयमशील भिक्षु को वहाँ भिक्षा के लिए नहीं जाना चाहिए। क्योंकि वहाँ जाने में अनेक दोषों की सम्भावना है, जैसे किमार्ग में बहुत-से प्राणी, बहुत-सी रियाली, बहुत-से ओसकण, बहुत पानी, बहुत-से कोड़ीनगर, पाँच वर्ण की-नीलण-फूलण (फूही) हैं, काई आदि निगोद के जीव हैं, सचित्तपानी से भीगी हुई मिट्टी है, मकड़ी के जाले हैं; उन सबकी विराधना होगी; (इसके अतिरिक्त) वहाँ बहुत-से शाक्यादि-श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, दरिद्र, याचक (भिखारी) आदि आए हुए है, आ रहे हैं तथा आएंगे; संखडिस्थल चरक आदि जनता की भीड़ मे अत्यन्त घिरा हुआ है। इसलिए वहाँ प्राज्ञ साधु का निर्गमन-प्रवेश का व्यवहार उचित नहीं है। क्योंकि वहाँ (नृत्य, गीत एवं वाद्य 1. चूणिकार ने इसके स्थान पर इस प्रकार का पाठान्तर माना है—'बहवे समग-माहणा उबागता उवागमिस्संति'-वहाँ बहत से श्रमण-ब्राह्मण आ गए हैं, पाएंगे। 2. इसके बदले 'तत्थाइण्णा' पाठ मिलता है। अर्थ है--वहाँ संखडि की जगह जनाकीर्ण हो गयी है। चर्णिकार 'अच्चाइण्णा' पाठ मान कर अर्थ करते हैं---'अत्यथं आइण्णा अन्चाइणा' सखडि की भूमि अत्यन्त (खचाखच) भर गई है। 3. यहाँ 'जाच' शब्द से सु० 348 के पूर्वाधं में पठित समग्र पाठ समझ लेना चाहिए / 4. यहाँ 'जाव' शब्द से सू० 348 के पूवार्ध में पठित सम्पूर्ण पाठ समझ लें। 5. चूर्णि में पाठान्तर है--से एवं स्वा' / अर्थ समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org