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________________ 178 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध 473. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि आगे लम्बा अटवीमार्ग है / यदि उस अटवी मार्ग के विषय में वह यह जाने कि यह एक दिन में, दो दिन में, तीन दिनों में, चार दिनों में या पांच दिनों में पार किया जा सकता है, अथवा पार नहीं किया जा सकता, तो विहार के योग्य अन्य मार्ग होते, उस अनेक दिनों में पार किये जा सकने वाले भयंकर अटवी मार्ग से विहार करके जाने का विचार न करे। केवली भगवान कहते हैंऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि मार्ग में वर्षा हो जाने से द्वीन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति हो जाने पर, मार्ग में काई. लीलन-फूलन, बीज, हरियाली, सचित्त पानी और अविध्वस्त मिट्टी आदि के होने से संयम की विराधना होनी सम्भव है। इसीलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थकरादि ने पहले से इस प्रतिज्ञा हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि वह साधु अन्य साफ और एकाध दिन में ही पार किया जा सके ऐसे मार्ग के रहते इस प्रकार के अनेक दिनों में पार किये जासकनेवाले भयंकर अटवी-मार्ग से विहार करके जाने का संकल्प न करे। अतः साधु को परिचित और साफ मार्ग से ही यतनापूर्वक प्रामानुग्राम विहार करना चाहिए। विवेचन--ग्रामानुग्राम-विहार : विधि ; खतरे और सावधानी-वर्षावास के सिवाय शेषकाल में साधु साध्वियों के लिए ग्रामानुग्रामविहार करने की भगवदाज्ञा है / सूत्र 466 से ग्रामानुग्राम विहार करने की यह भगवदाज्ञा प्रत्येक सूत्र में दोहराई गई है, साथ ही खतरे बता कर उनसे सावधान रहने का भी निर्देश किया है, परन्तु ग्रामानुग्रामविहार में आने वाले खतरों से डर कर या परीषहों एवं उपसर्गों से घबरा कर साधु वर्ग निराश-खिन्न और उदास होकर एक ही स्थान में न जम जाए, स्थिरवास न करले, इस दृष्टि से से बार-बार ग्रामानुग्राम-विचरण करने के लिए प्रेरित किया है। हाँ, अविधिपूर्वक विहार करने से या जानबूझ कर सूत्रोक्त खतरों में पड़ने से साधु की संयम-विराधना एवं आत्म-विराधना होने की सम्भावना है। विहार की सामान्य विधि यह है कि साधु-साध्वी अपने शरीर के सामने की लगभग चार हाथ (गाड़ी के जुए के बराबर) भूमि के देखते हुए (दिन में ही) चलें / जहाँ तक हो सके वह ऐसे मार्ग से गमन करे, जो साफ, सम, और जीव-जन्तुओं, कीचड़, हरियाली, पानी आदि से रहित हो / इतना होने पर भी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पांच प्रकार के विघ्नों-खतरों से बचने के उपाय शास्त्रकार ने व्यक्त किये हैं - (1) स जीवों से मार्ग भरा हो, (2) त्रस प्राणी, बीज, हरित, उदक और सचित्त मिट्टी आदि मार्ग में हो, (3) अनेक देशों के सीमावर्ती दस्युओं, म्लेच्छों, अनार्यों, दुर्बोध्य एवं अधार्मिक लोगों के स्थान उस मार्ग में पड़ते हों, (4) अराजक, दुःशासक, या विरोधी शासक वाले देश आदि मार्ग में पड़ते हों, (5) अनेक दिनों में पार किया जा सके, ऐसा लम्बा भयंकर अटवी मार्ग रास्ते में पड़ता हो। प्रथम दो प्रकार के मार्ग-विघ्नों के अनायास आ पड़ने पर उन पर यतना पूर्वक चलने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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