________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 469-73 177 नता से आर्यों का आचार समझाया जा सकता है, जिन्हें दुःख से धर्म-बोध देकर अनार्यकर्मों से हटाया जा सकता है, ऐसे अकाल (कुसमय) में जागनेवाले, कुसमय में खाने-पीनेवाले मनुष्यों के स्थान मिलें तो अन्य ग्राम आदि में बिहार हो सकता हो या अन्य आर्यजनपद विद्यमान हों तो प्रासुक-भोजी साधु उन म्लेच्छादि के स्थानों में विहार करने की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे। केवली भगवान् कहते हैं-वहाँ जाना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि वे म्लेच्छ अज्ञानी लोग साधु को देखकर-'यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु के गाँव से आया है', यों कह कर वे उस भिक्षु को गाली-गलौज करेंगे, कोसेंगे रस्सों से बाँधेगे, कोठरी में बंद कर देंगे, डंडों से पीटेंगे, अंगभंग करेंगे, हैरान करेंगे यहां तक कि प्राणों से रहित भी कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त वे दुष्ट उसके वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद पोंछन आदि उपकरणों को तोड़-फोड़ डालेंगे, अपहरण कर लेंगे या उन्हें कहीं दूर फेंक देंगे, (क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब सम्भव है / ) इसीलिए तीर्थकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा भिक्षुओं के लिए पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा, हेतु कारण और उपदेश है कि भिक्षु उन सीमा प्रदेशवर्ती दस्यु स्थानों तथा म्लेच्छ, अनार्य, दुर्बोध्य आदि लोगों के स्थानों में; अन्य आर्यजनपदों तथा आर्य ग्रामों के होते विहार को दृष्टि से जाने का संकल्प भी न करे। अतः इन स्थानों को छोड़ कर संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे / 452. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में यह जानें कि ये अराजक (राजा से रहित) प्रदेश हैं, या यहाँ केवल युवराज का शासन है, जो कि अभी राजा नही बना है, अथवा दो राजाओं का शासन है, या परस्पर शत्रु दो राजाओं का राज्याधिकार है, या धर्मादि-विरोधी राजा का शासन है, ऐसी स्थिति में विहार के योग्य अन्य आर्य जनपदों के होते, इस प्रकार के अराजक आदि प्रदेशों में विहार करने की दृष्टि से गमन करने का विचार न करे। केवली भगवान् ने कहा है--ऐसे अराजक आदि प्रदेशों में जाना कर्मबन्ध का कारण है। क्योंकि वे अज्ञानीजन साधु के प्रति शंका कर सकते हैं कि “यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु राजा के देश से आया है," तथा इस प्रकार की कुशंका से ग्रस्त होकर वे साधु को अपशब्द कह सकते हैं, मार-पीट सकते हैं, उसे हैरान कर सकते हैं, यहां तक कि उसे जान से भी मार सकते हैं। इसके अतिरिक्त उसके वस्त्र, पात्र, कंबल पाद-प्रोंछन आदि उपकरणों को तोड़फोड़ सकते हैं, लूट सकते हैं, और दूर फेंक सकते हैं। इन सब आपत्तियों की सम्भावना से तीर्थंकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा साधुओं के लिए पहले से ही यह प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश निर्दिष्ट हैं कि साधु इस प्रकार के अराजक आदि प्रदेशों में बिहार की दृष्टि से जाने का संकल्प न करे।" अतः साधु को इन अराजक आदि प्रदेशों को छोड़कर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org