SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 632
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 466-73 176 की विधि भी बताई है / अन्त के तीन खतरों वाले मार्गों को छोड़कर दूसरे सरल, साफ, खतरों से रहित मार्ग से विहार करने का निर्देश किया है। यतना चार प्रकार की होती है—(१) जीव-जन्तुओं को देखकर चलना, द्रव्य यतना है, (2) युग मात्र भूमि को देखकर चलना, क्षेत्र-यतना है। (3) अमुक काल में ( वर्षा काल को छोडकर चलना. काल-यतना है और (4) संयम और साधना के भाव से उपयोगपर्वक चलना भाव-यतना है।' युग का अर्थ गाड़ी का जुआ होता है, जो आगे से संकड़ा व पीछे से चौड़ा लगभग साढ़े तीन हाथ का होता है। ईर्या-समितिपूर्वक चलने पर दृष्टि का आकार भी लगभग इसी प्रकार का बनता है। शरीर भी अपने हाथ से लगभग इतना ही होता है, इसलिए चूर्णिकार जिनदासमहत्तर ने युग का अर्थ शरीर भी किया है। 'उखट्ट' आदि पदों के अर्थ---'उखट्ट' =पैर को उठाकर, पैर के अगले तल से पैर के रखने के प्रदेश को लांघकर / साहटु =सिकोड़कर, पैरों को शरीर की और खींचकर या आगे के भाग को उठाकर एड़ी से चले / वितिरिच्छं कटु-पैर को तिरछा करके चले। जीव-जन्तु को देखकर, उसे लांघकर चले, या दूसरा मार्ग हो तो उसी मार्ग से जाए, सीधे मार्ग से नही। दसुगायतणाणि दस्युओं-लुटेरों या डाकुओं के स्थान, पच्चंतिकाणि-प्रत्यन्त सीमान्तवर्ती। मिलक्खूणि ==बर्बर, शबर, पुलिन्द आदि मलेच्छप्रधान स्थान, दुस्सण्णप्पाणि =जिन्हें कठिनता से आर्य-आचार समझाया जा सकें, ऐसे लोगों के स्थान, चुप्पण्णवणि उजाणिं =दुःख से धर्मबोध दिया जा सके और अनार्य-आचार छुड़ाया जा सके, ऐसे लोगों के स्थान, अकालपडि. मोहीणि =कुसमय में जागने वाले लोगों के स्थान / / 'ला' शब्द की व्याख्या-शीलांकाचार्य ने इस प्रकार की है-"येन, केनचित् प्रासुकाहारोप करणाणि---गतेन विधिनात्मानं यापयति तालयतीति लाढाः।" अर्थात् जिस किसी प्रकार से प्रासुक आहार, उपकरण आदि की विधि से जो अपना जीवन-यापन करता है, आत्मरक्षा करता है, वह लाढ है। यहां पर 'लाढ' विहार योग्य आर्यदेश का विशेषण प्रतीत होता है। अरामाणि आदि पदों की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार इस प्रकार है-अरायाणि =जहाँ का राजा मर गया है, कोई राजा नहीं है। जुवरायाणिजब तक राज्याभिषेक न किया जाए, 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 377 के आधार पर / 2. (क) उत्तराध्ययन सुत्र अ० 24 गा०६, 7 बृहद्वति / (ख) "तावमेत्तपुरमओ अंतो संकुडाए बाहि वित्थडाए सगडुद्धि संठिताए दिछौए / - दशवकालिक जिन० चणि प० 168-05 / 113 3. (क) 'उद्धटु त्ति उक्खिवित्तु अतिक्कमित्तु वा, साहट्ट परिसाहरति निवर्तयतीत्यर्थः / वितिरिच्छं= पस्सेणं अतिक्कमति सति विद्यमाने अन्यत्र गच्छेत् ण उज्जुगं / ' -आचारांग चूणि मूलपाठ टिप्पण पृष्ठ 172 / 4. (क) सूत्रकृतांग, शीलांक वृत्ति 101113 (ख) निशीथ सूत्र उद्दे० 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy