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________________ प्रथम अध्ययन : छठा उद्देशक : सूत्र 361-364 केवली बूया-आयाणमेयं / अस्संजए भिक्खुपडियाए उस्सिचमाणे वा निस्सिचमाणे' वा आमज्जमाणे वा पमज्जमाणे वा उतारेमाणे वा उयत्तमाणे अगणिजीवे हिंसेज्जा / अह भिक्खुणं पुन्वोवविट्ठा एस पतिण्णा, एस हेतू, एस कारणं, एसुववेसे-जं तहप्पगारं असणं वा 4 अगणिणिक्खितं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 361. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी को यह ज्ञात हो जाए कि शालि-धान, जौ, गेहूँ आदि में सचित्तरज (तुष सहित) बहुत है, गेहूं आदि अग्नि में भूजे हुए है, किन्तु वे अर्धपक्व है, गेहूं आदि के आटे में तथा कुटे हुए धान में भी अखण्ड दाने है, कणसहित चावल के लम्बे दाने सिर्फ एक बार भुने हुए या कुटे हुए हैं, अतः असंयमी गृहस्थ भिक्षु के उद्देश्य से सचित्त शिला पर, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, धुन लगे हुए लक्कड़ पर, या दीमक लगे हुए जीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे सहित, प्राण-सहित या मकड़ी आदि के जालों सहित शिला पर उन्हें कूट चुका है. कूट रहा है या कूटेगा; उसके पश्चात् वह उन--(मिश्रजीवयुक्त) अनाज के दानों को लेकर उपन चुका है, उपन रहा है या उपनेगा; इस प्रकार के (भूसी से पृथक् किए जाते हुए) चावल आदि अन्नों को अप्रासुक और अनेषणीय जानकर साधु ग्रहण न करे। 362. गृहस्थ के घर में आहारार्थ प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि वह जाने कि असंयमी गृहस्थ किसी विशिष्ट खान में उत्पन्न सचित्त नमक या समुद्र के किनारे खार और पानी के संयोग में उत्पन्न उद्भिज्ज लवण के सचित्त शिला, सचित्त मिट्टी के ढेले पर, घुन लगे लक्कड़ पर याजीवाधिष्ठित पदार्थ पर, अण्डे, प्राण, हरियाली, बीज या मकड़ी के जाले सहित शिला पर टुकड़े कर चुका है, कर रहा है या करेगा, या पीस चुका है, पीस रहा है या पीमेगा तो साधु ऐसे सचित्त या सामुद्रिक लवण को अप्रासुक-अनेषणीय समझ कर ग्रहण न करे / 363. गृहस्थ के घर आहार के लिए प्रविष्ट साधु-साध्वी यदि यह जान जाए कि अशनादि आहार अग्नि पर रखा हुआ है, तो उस आहार को अप्रासुक-अनेषणीय जानकर प्राप्त होने पर ग्रहण न करे। केवली भगवान् कहते है-यह कर्मों के आने का मार्ग है। क्योंकि असंयमी गृहस्थ साधु के उद्देश्य से अग्नि पर रखे हुए बर्तन में से आहार को निकालता हुआ, उफनते हुए दूध आदि को जल आदि के छींटे देकर शान्त करता हुआ, अथवा उसे हाथ आदि से .एक बार या बारबार हिलाता हुआ, आग पर से उतारता हुआ या बर्तन को टेढ़ा करता हुआ वह अग्निकायिक जीवों की हिंसा करेगा। अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर भगवान् ने पहले से ही प्रतिपादित किया है कि उसकी यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह कारण है और यह उपदेश है कि वह (साध 1. निस्सिचमाणे' का अर्थ चूणिकार ने किया है--णिसिंचति तहि अण्णं छुमति' अर्थात् बर्तन में अन्न ऊरते (आंधण डालते) समय अन्न को मसलती है। 2. उतारेमाणे का अवशय चूर्णि में दिया है-'उतारेमाणे वा अगणिवि राहणा' उतारते हुए अग्नि की विराधना होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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