________________ दशम अध्ययन : सूत्र 646-67 316 हों, पंकबहुल आयतन हों, पवित्र जलप्रवाह वाले स्थान हों, जलसिंचन करने के मार्ग हों, ऐसे तथा इसी प्रकार के जो स्थण्डिल हों, उन पर मल-मूत्र विसर्जन न करे। 664. साधु या साध्वी ऐसे स्थण्डिल को जाने, जो कि मिट्टी की नई खाने हों, नई गोचर भूमि हो, सामान्य गायों के चरागाह हों, खाने हों, अथवा अन्य उसी प्रकार का कोई स्थ ण्डिल हो तो उसमें उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन न करे , 665. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहाँ डालप्रधान शाक के खेत हैं, पत्रप्रधान शाक के खेत हैं, मूली, गाजर आदि के खेत है, हस्तंकुर बनस्पति विशेष के क्षेत्र हैं, उनमें तथा अन्य उसी प्रकार के स्थण्डिल में मल-मूत्र विसर्जन न करे / 666. साधु या साध्वी यदि ऐसे स्थण्डिल को जाने, जहाँ बीजक वृक्ष का वन है, पटसन का बन है, धातकी (आंवला) वृक्ष का वन है, केवड़े का उपवन है, आम्रवन है, अशोकवन है, नागवन है, या पुन्नागवृक्षों का वन है, ऐसे तथा अन्य उस प्रकार के स्थण्डिल, जो पत्रों, पुष्पों, फलों, बीजों या हरियाली से युक्त हों, उनमें मल-मूत्र विसर्जन न करे / / 667. संयमशील साधु या साध्वी स्वपात्रक (स्वभाजन) लेकर एकान्त स्थान में चला जाए, जहाँ पर न कोई आता-जाता हो और न कोई देखता हो, या जहाँ कोई रोक-टोक न हो, तथा जहाँ द्वीन्द्रिय आदि जीव-जन्तु, यावत् मकड़ी के जाले भी न हों, ऐसे बगीचे या उपाश्रय में अचित्त भूमि पर बैठकर साधु या साध्वी यतनापूर्वक मल-मूत्रविसर्जन करे / उसके पश्चात् वह उस (भरे हुए मात्रक) को लेकर एकान्त स्थान में जाए, जहाँ कोई न देखता हो और न ही आता-जाता हो, जहाँ पर किसी जीवजन्तु की विराधना की सम्भावना न हो, यावत् मकड़ी के जाले न हों, ऐसे बगीचे में या दग्धभूमि वाले स्थण्डिल में या उस प्रकार के किसी अचित्त निर्दोष पूर्वोक्त निषिद्ध स्थण्डिलों के अतिरिक्त स्थण्डिल में साधु यतनापूर्वक मल-मूत्र-परिष्ठापन (विसर्जन) करे। विवेचन–मल-मूत्र-विसर्जन : कैसे स्थण्डिल पर करे, कैसे पर नहीं ? --सूत्र 646 से 667 तक 22 सूत्रों में मल-मूत्र विसर्जन के लिए निषिद्ध और विहित स्थण्डिल का निर्देश किया गया है / इनमें से तीन सूत्र विधानात्मक है, शेष सभी निषेधात्मक हैं। निषेधात्मक स्थण्डिल सूत्र संक्षेप में इस प्रकार हैं (1) जो अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से युक्त हो। (2) जो स्थण्डिल एक या अनेक सार्मिक साध या सामिणी साध्वी के उद्देश्य से, अथवा श्रमणादि की गणना करके उनके उद्देश्य से निर्मित हो, साथ ही अपुरुषान्तरकृत यावत् अनीहृत हो। (3) जो बहुत से शाक्यादि श्रमण ब्राह्मण यावत् अतिथियों के उद्देश्य से निर्मित हो, साथ ही अपुरुषान्तरकृत यावत् अनीहृत हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org