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________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय भुतस्कन्ध इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही भिक्षु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह इस प्रकार के (गृहस्थ संसक्त) उपाश्रय में स्थान आदि कार्य न करे। 430. (गृहस्थ संसक्त मकान में ठहरने पर) वह भिक्षु या भिक्षुणी, रात में या विकाल में मल-मूत्रादि की बाधा (हाजत) होने पर गृहस्थ के घर का द्वारभाग खोलेगा, उस समय कोई चोर या उसका सहचर घर में प्रविष्ट हो जाएगा तो उस समय साधु को मौन रखना होगा। ऐसी स्थिति में साधु के लिए ऐसे कहना कल्पनीय नहीं है कि यह चोर प्रवेश कर रहा है, या प्रवेश नहीं कर रहा है, यह छिप रहा है, या नहीं छिप रहा है, नीचे कूद रहा है या नहीं कूदता है, बोल रहा है या नहीं बोल रहा है, इसने चुराया है, या किसी दूसरे ने चुराया है, उसका धन चुराया है अथवा दूसरे का धन चुराया है; यही चोर है, यह उसका उपचारक (साथी) है, यह घातक है, इसी ने यहाँ यह (चोरी का) कार्य किया है। और कुछ भी न कहने पर जो वास्तव में चोर नहीं है, उस तपस्वी साधु पर (गृहस्थ को) चोर होने की शंका हो जाएगी। इसीलिए तीर्थकर भगवान् ने पहले से ही साधु के लिए यह प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह गृहस्थ से संसक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि क्रिया करे। विवेचन-गृहस्थ संसक्त उपाश्रय : अनेक अनों का आश्रय--पूर्व उद्देशक में भी शास्त्रकार ने गृहस्थ संसक्त उपाश्रय में निवास को अनेक अनर्थों की जड़ बताया था। इस उद्देशक के प्रारम्भ में फिर उसी गृहस्थ संसक्त उपाश्रय के दोषों को विविध पहलुओं से शास्त्रकार समझाना चाहते हैं / सूत्र 427 से 430 तक इसी की चर्चा है। इन सूत्रों में चार पहलुओं से गृहस्थ संसक्त उपाश्रय निवास के दोष बताए गए हैं (1) साफ-सुथरा रहने वाले व्यक्ति के मकान में साधु के ठहरने पर परस्पर एक-दूसरे के प्रति शंका-कुशंका में खिचे-खिचे रहेंगे, दोनों के कार्य का समयचक्र उलट-पुलट हो जाएगा। (2) गृहस्थ अपने लिए भोजन बनाने के बाद साधुओं के लिए खासतौर से भोजन बनाएगा, साधु स्वादलोलुप एवं आचार भ्रष्ट हो जाएगा। (3) साधु के लिए गृहस्थ ईंधन खरीदेगा या किसी तरह जुटाएगा, अग्नि में जलाएगा, साधु भी वहां रहकर आग में हाथ सेंकने लगेगा। (4) मकान में चोर घुस जाने पर साधु धर्म-संकट में पड़ जाएगा कि गृहस्थ को कहे कि न कहे। दोनों में ही दोष है। ये और इस प्रकार के अन्य खतरे गृहस्थ ससक्त मकान में रहते हैं। इसलिए यहाँ भी शास्त्रकार ने तीर्थंकरों द्वारा निर्दिष्ट प्रतिज्ञा और उपदेश को बारम्बार दुहराकर साधु को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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