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________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध एवं ससरक्खे मट्टिया उसे हरियाले हिंगुलुए मणोसिला अंजणे लोणे गेरुय वणिय सेडिय सोरट्ठिय पिट्ठ कुक्कुस उक्कुट्ट असंसट्ठण।' ___ अह पुणेवं जाणेज्जा-णो असंस?, संस? / तहप्पगारेण संस?ण हत्येण वा 4 असणं वा 4 फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। अह पुण एवं जाणेज्जा-असंसट्ठ, संस? / तपहप्पगारेण संस?ण हत्येण वा 4 असणं वा 4 फासुयं जाव' पडिगाहेज्जा। ___360. आहारादि के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी उसके घर के दरवाजे की चौखट (शाखा) पकड़कर खड़े न हों, न उस गृहस्थ के गंदा पानी फेंकने के स्थान पर खड़े हों, न उनके हाथ-मुंह धोने या पीने के पानी बहाये जाने की जगह खड़े हों, और न ही स्नानगृह, पेशाबघर या शौचालय के सामने (जहाँ व्यक्ति बैठा दिखता हो, वहाँ) अथवा निर्गमन-प्रवेश द्वार पर खड़े हों। उस घर के झरोखे आदि को, मरम्मत की हुई दीवार आदि को, दीवारों की सन्धि को, तथा पानी रखने के स्थान को, वार-वार बाहें उठाकर या फैलाकर अंगुलियों से वार-वार उनकी ओर संकेत करके, शरीर को ऊँचा उठाकर या नीचे झुकाकर, न तो स्वयं देखे, और न दूसरे को दिखाए / तथा गृहस्थ (दाता) को अंगुलि से बार-बार निर्देश करके (वस्तु की) याचना न करे, और न ही अंगुलियाँ बार-बार चलाकर या अंगुलियों से भय दिखाकर गृहपति से याचना करे। इसी प्रकार अंगुलियों से शरीर को बार-बार खुजलाकर या गृहस्थ की प्रशंसा या स्तुति करके आहारादि की याचना न करे। (न देने पर) गृहस्थ को कठोर वचन न कहे। गृहस्थ के यहां आहार के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी किसी व्यक्ति को भोजन करते हुए देखे, जैसे कि : गृहस्वामी, उसकी पत्नी, उसकी पुत्री या पुत्र, उसकी पुत्रवधू या गृहपति के दास-दासी या नौकर-नौकरानियों में से किसी को, पहले अपने मन में विचार करके कहेआयुष्मान गृहस्थ (भाई) ! या हे बहन ! इसमें में कुछ भोजन मुझे दोगे ? उस भिक्षु के ऐसा कहने पर यदि वह गृहस्थ अपने हाथ को, मिट्टी के बर्तन को, दर्वी (कुड़छी) को या कांसे आदि के वर्तन को ठंडे (सचित्त) जल से, या ठंडे हुए उष्णजल से एक बार धोए या बार-बार रगड़कर धोने लगे तो वह भिक्ष पहले उसे भली-भांति देखकर और विचार कर कहे...'आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! तुम इस प्रकार हाथ, पात्र, कुड़छी या बर्तन को ठंडे सचित्त पानी से या कम गर्म किए हुए (सचित्त) पानी से एक बार या बार-बार मत धोओ। यदि मुझे भोजन देना चाहती हो तो ऐसे-(हाथ आदि धोए बिना) ही दे दो।' 1. इसके विशेप स्पष्टीकरण एवं तुलना के लिए दशवकालिक सूत्र अ० 5 उ० 1 गा० 32 से 51 तक मूल एवं टिप्पणी सहित देखिये। 2. 'फासुमं के आगे 'जाव' शब्द 'एसणिज्जं लामे संसे' इन पदों का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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