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________________ आधारांग सूत्र-द्वितीय अ तस्कन्ध है तो उसका प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन करके यतनापूर्वक स्थानादि कार्य के लिए वह उपयोग कर सकता है। 418. वह साधु या साध्वी ऐसा उपाश्रय जाने कि असंयत-गृहस्थ साधुओं को उसमें ठहराने की दृष्टि से (उसमें रखे हुए) चौकी, पट्टे, निसनी या ऊखल आदि सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जा रहा है, अथवा कई पदार्थ बाहर निकाल रहा है, यदि वैसा उपाश्रय अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासेवित हो तो साधु उसमें कायात्सर्गादि कार्य न करे। ___ यदि फिर वह जान जाए कि वह उपाश्रय पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है, तो उसका प्रतिलेखन-प्रमार्जन करके यतनापूर्वक उसमें स्थानादि कार्य करे / विवेचन--कैसे उपाश्रय का निषेध, विधान ? तृतीय विवेक-सूत्र 415 से सूत्र 418 तक में उपाश्रय-निर्वाचन का तृतीय विवेक बताया गया है। इन सूत्रों में साधुओं के निमित्त, तथा अपुरुषान्तरकृत आदि चार प्रकार के उपाश्रयों के उपयोग का निषेध है.--- (1) वह संस्कारित-सुसज्जित किया गया हो। (2) उसकी तोड़-फोड़ तया मरम्मत की जा रही हो। (3) उसमें से कन्द-मूल आदि स्थानान्तर किये या निकाले जा रहे हो। (4) चौकी, पट्टे आदि सामग्री वहाँ से अन्यत्र ले जायी जा रही हो, उसमें से भारीभरकम सामान बाहर निकाला जा रहा हो।' ___ इस प्रकार मकान को परिकर्मित-संस्कारित करने तथा उसकी मरम्मत कराने, उसमें पड़े हुए सचित्त-अचित्त सामान को स्थानान्तर करने, निकालने आदिमें मूलगुण-उत्तरगुण-विराकी सम्भावना बृहत्कल्पभाष्य और निशीथभाष्य में व्यक्त की गई है। यही कारण है कि आचारांग में इन्ही चार प्रकार के उपाश्रयों के उपयोग का विधान है, बशर्ते कि वे पुरुषान्तरकृत हों, साधु के लिए ही स्थापित न किए गए हों, दाता द्वारा अधिकृत परिभुक्त और आसेवित हों। णिग्णक्खू का अर्थ है-निकालता है। पुरुपान्तरकृत आदि देने पर-वे उपाश्रय साधु के लिए औद्देशिक, क्रीत, उधार लिए हुए या आरम्भकृत आदि दोषों से युक्त नहीं रहते। इन्हीं लक्षणों से पहचाने जा सकते हैं कि ये उपाश्रय निर्दोष/निरवद्य हैं। इसी कारण शास्त्रकार ने ऐसे उपाश्रयों के निर्वाचन का विवेक बताया है। चूंकि गृहस्थ जब किसी मकान को अपने लिए बनाता है, या अपने किसी कार्य के लिए उस पर अपना अधिकार रखता है, अपने या समूह के प्रयोजन के लिए स्थापित करता है, 1. (क) टीका पत्र 361 के आधार पर / 2. वृहत्कल्प भाष्य 583-584 / देखिए वे पंक्तियां आचा० मूलपाठ टिप्पणी सूत्र 415 / 3. निशीथ भाष्य 2047-48 4. टीका पत्र 361 के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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