________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध कृष्ण पक्ष में, मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर भगवान् ने अभिनिष्क्रमण (दीक्षाग्रहण) करने का अभिप्राय किया / विवेचन –अभिनिष्क्रमण की पूर्व तैयारी-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर ने मुनि दीक्षा के लिए अपनी योग्यता और क्षमता कितनी बढ़ा ली थी, अपना जीवन कितना अलिप्त, अना. सक्त, विरक्त और अप्रमत्त बना लिया था, यह उनके विशेषणों से शास्त्रकार ने प्रकट कर दिया है। यद्यपि वृत्तिकार ने इन शब्दों की कोई व्याख्या नहीं की है, तथापि चूर्णिकार ने कल्पसूत्र में दिये गए विशेषणों के अनुसार व्याख्या की है, दक्खे = क्रियाओं में दक्ष / पतिपणे = विशेषज्ञाता / पडिरूवे = रूप और गुण के प्रतिरूप, भद्र स्वभाववाले, भद्रक या मध्यस्थ / विणोते = दक्षतादि गुणयुक्त होने पर भी अभिमान नहीं करने वाले / गाते पुले विणिय? =ज्ञातकुल में उत्पन्न, विदेहदिन्ने = विदेहा-- त्रिशला माता के अंगजात / जच्चे = जात्य-कुलीन, श्रेष्ठ / अथवा विदेहवच्चे = विदेह का वर्चस्वी पुरुष / विदेहे = देह के प्रति अनासक्त / __ आचारांग (अर्थागम) में एवं कल्पसूत्र में इनका अर्थ यों किया गया है-- णाए-प्रसिद्धज्ञात, अथवा वे ज्ञातवंश के थे। णायकुलविणिवते =ज्ञातकुल में चन्द्रमा के समान / विदेहे - उनका देह दूसरों के देह की अपेक्षा विलक्षण था या विशिष्ट शरीर (विशिष्ट संहनन-संस्थान) वाले / विवेहदिण्णे = त्रिशला माता के पुत्र / विदेहजच्चे - त्रिशला माता के शरीर में जन्म ग्रहण किये हुए विदेहवासियों में श्रेष्ठ / विदेहसूमाले =अत्यन्त सुकुमाल या घर में सुकुमाल अवस्था में रहने वाला। साथ ही उनको प्रतिज्ञा (माता-पिता के जीवित रहते दीक्षा न लेने की) पूर्ण हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त घर में रहते हुए उन्होंने सोना, चांदी, सैन्य, वाहन, धान्य, रत्न आदि सारभूत पदार्थों का त्याग करके जिनको जो देना, बाँटना या सौंपना था, वह सब वे दे, बाँट या सौंप कर निश्चिन्त हो चुके थे। वार्षिकदान भी देना प्रारम्भ कर चुके थे। इस प्रकार भगवान् महावीर ने दीक्षा की पूर्ण तैयारी करने के पश्चात् ही मार्गशीर्ष कृष्णा 10 को दीक्षा ग्रहण करने का अपना अभिप्राय किया था।' सांवत्सरिक दान 747. संघच्छरेण होहिती अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स। तो अत्थसंपदाणं पवत्तती पुटवसूरातो / / 111 // 1. आचारांग मूल पाठ सटिप्पण पृ० 265, 166 2. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि. पृ० 265 (ख) कल्पसूत्र (देवेन्द्र मुनि सम्पादित) 10 147 (ग) आचारांग (अर्थागम खण्ड-१) (पुप्फभिक्खू-सम्पादित) पृ. 154 3. आचारांग मूल पाठ पृ० 266 4. 'होहिति' के बदले पाठान्तर है.-'होहित्ति / ' 5. वरिदस्स' के बदले पाठान्तर है-'वरिंदाणं' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org