________________ 101 माधारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध होने का पुरुषार्थ तथा उसके फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य लोक में मनुष्य के द्वारा ही सम्भव है, अन्य लोकों में या अन्य जीवों द्वारा नहीं। विषय-भोग इसलिए निस्सार हैं कि उनके प्राप्त होने पर तृप्ति कदापि नहीं होती। इसीलिए भरत चक्रवर्ती आदि विषय-भोगों को निस्सार समझकर संयमानुष्ठान के लिए उद्यत हो गये थे, फिर वे पुनः उनमें लिपटे नहीं। 'उववाय' और 'चयणं'---इन दोनों पदों को अंकित करने का प्राशय यह है कि मनुष्यों का जन्म और मरण तो सर्वविदित है ही, देवों के सम्बन्ध में जो भ्रान्ति है कि उनका विषयसुखों से भरा जीवन अमर है, वे जन्मते-मरते नहीं, अतः इसे बताने के लिए उपपात और च्यवन-इन दो पदों द्वारा देवों के भी जन्म-मरण का संकेत किया है। इतना ही नहीं. विषयभोगों की निःसारता और जीवन की अनित्यता इन दो बातों द्वारा संसार की एवं संसार के सभी स्थानों की अनित्यता, क्षणिकता एवं विनश्वरता यहाँ ध्वनित कर दी है / 2 'मछले, न छणावाए' इन पदों में 'छण' शब्द का रूपान्तर 'क्षण होता है / क्षणु हिंसायाम्' हिसार्थक 'क्षणु' धातु से 'क्षण' शब्द बना है। अतः इन दोनों पदों का अर्थ होता है, स्वयं हिंसा न करे और न हो दूसरों के द्वारा हिंसा कराए / उपलक्षण से हिंसा करने वाले का अनुमोदन भी न करे / 'अणण्ण' शब्द का तात्पर्य है- अनन्य-मोक्षमार्ग। क्योंकि मोक्षमार्ग से अन्य-असंयम है और जो अन्यरूप-असंयम रूप नहीं है, वह ज्ञानादि रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग अनन्य है। 'अनन्य' शब्द मोक्ष, संयम और आत्मा को एकता का भी बोधक है। ये प्रात्मा से अन्य नहीं है, आत्मपरिणति रूप ही है अर्थात् मोक्ष एवं संयम आत्मा में ही स्थित हैं / अतः वह आत्मा से अभिन्न 'अनन्य' है। . 'अणोमदंसी' शब्द का तात्पर्य है-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रदर्शी। अवम का अर्थ है-होन। हीन है-मिथ्यात्व-अविरति आदि / अवमरूप मिथ्यात्वादि से विपरीत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रादि अनवम उच्च-महान हैं / साधक को सदा उच्चद्रष्टा होना चाहिए। अनवम-उदात्त का द्रष्टा-अनवमदर्शी यानी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रदर्शी होता है। लोभ को नरक इसलिए कहा गया है कि लोभ के कारण हिंसादि अनेक पाप होते हैं, जिनसे प्राणी सीधा नरक में जाता है / गीता में भी कहा है-- त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः / कामः क्रोधस्तथा लोभः तस्मादेतत् त्रयं त्यजेत् // ... ये तीन पात्मनाशक और नरक के द्वार हैं--काम, क्रोध और लोभ / इसलिए मनुष्य इन तीनों का परित्याग करे / 1. देखें पृष्ठ 90 पर देवों के जरा सम्बन्धी टिप्पण / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 148 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 148 / / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 148 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org