________________ तृतीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 119-121 119. इस प्रकार कई व्यक्ति इस अर्थ-(वध, परिताप, परिग्रह आदि असंयम) का आसेवन–पाचरण करके (अन्त में) संयम-साधना में संलग्न हो जाते हैं। इसलिए वे (काम-भोगों को, हिंसा आदि प्रास्रवों को छोड़कर) फिर दुबारा उनका आसेवन नहीं करते। हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू विषयाभिलाषा मत कर)। (केवल मनुष्यों के ही जन्म-मरण नहीं), देवों के भी उपपात (जन्म) और च्यवन (मरण) निश्चित हैं, यह जानकर (विषय-सुखों में आसक्त मत हो) / हे माहन ! (अहिंसक) तू अनन्य (संयम या रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग) का आचरण कर / वह (अनन्यसेवी मुनि) प्राणियों की हिंसा स्वयं न करे, न दूसरों से हिंसा कराए और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करे / तू (कामभोग-जनित) आमोद-प्रमोद से विरक्ति कर (विरक्त हो) / प्रजाओं (स्त्रियों) में अरक्त (आसक्ति रहित) रह। अनवमदर्शी (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षदर्शी साधक) पापकर्मों से विषण्ण---उदासीन रहता है। 120. वीर पुरुष कषाय के आदि अंग-क्रोध (अनन्तानुबन्धी प्रादि चारों प्रकार के क्रोध) और मान को मारे (नष्ट करे), लोभ को महान नरक के रूप में देखे / लोभ साक्षात् नरक है), इसलिए लघुभूत (मोक्षगमन का इच्छुक अथवा अपरिग्रहवृत्ति अपना कर) बनने का अभिलाषी, वीर (जीव) हिंसा से विरत होकर स्रोतों (विषय-वासनाओं) को छिन्न-भिन्न कर डाले। 121. हे वीर इस लोक में ग्रन्थ (परिग्रह) को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से आज ही अविलम्ब छोड़ दे, इसी प्रकार (संसार के) स्रोत-विषयों को भी जानकर दान्त (इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला) बनकर संयम में विचरण कर। यह जानकर कि यहीं (मनुष्य-जन्म में) मनुष्यों द्वारा ही उन्मज्जन (संसारसिन्धु से तरना) या कर्मों से उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है, मुनि प्राणियों के प्राणों का समारम्भ-संहार न करे / —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-११९वें सूत्र में विषय-भोगों से विरक्त होकर संयम-साधना में जुटे हुए साधक को विषय-भोगों की असारता एवं जीवन की अनित्यता का सन्देश देकर हिंसा, काम-भोगजनित अानन्द, अब्रह्मचर्य आदि पापों से विरत रहने की प्रेरणा दी गयी है। यह निश्चित है कि जो मनुष्य विषय-भोगों में प्रबल आसक्ति रखेगा, वह उनकी प्राप्ति के लिए हिंसा, क्रूर मनोविनोद, असत्य, व्यभिचार, क्रोधादि कषाय, परिग्रह आदि विविध पापकर्मों में प्रवृत्त होगा / अतः विषय-भोगों से विरक्त संयमीजन के लिए इन सब पापकर्मों से दूर रहने तथा विषय-भोगों की निस्सारता एवं जीवन की क्षणभंगुरता की प्रेरणा देनी भनिवार्य है। साथ ही यह भी बताना आवश्यक है कि कर्मों से मुक्त होने या संसार-सागर से पार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org